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काम हो गया है…मार दो हथोड़ा- राजीव तनेजा

***राजीव तनेजा***

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"हैलो!…इज़ इट…+91 804325678 ?”…

"जी!..कहिये"…

"सैटिंगानन्द महराज जी है?"…

"हाँ जी!…बोल रहा हूँ..आप कौन?"

"जी!…मैँ..राजीव बोल रहा हूँ"…

"कहाँ से?”…

"मुँह से"…

"वहाँ से तो सभी बोलते हैँ…क्या आप कहीं और से भी बोलने में महारथ रखते हैँ?"…

"जी नहीं!…मेरा मतलब ये नहीं था"…

"तो फिर क्या तात्पर्य था आपकी बात का?"…

"दरअसल!…मैँ कहना चाहता था कि मैँ शालीमार बाग से बोल रहा हूँ"..

"ओ.के…लेकिन आपको मेरा ये पर्सनल नम्बर कहाँ से मिला?”..

"जी!…दरअसल ..वाराणसी से लौटते समय श्री लौटाचन्द जी ने मुझे आपका ये नम्बर दिया था"…

"अच्छा!…अच्छा…फोन करने का कोई खास मकसद?”…

"जी!…मुझे पता चला था कि इस बार दिल्ली में शिविर का आयोजन होना है"…

"जी!…आपने बिलकुल सही सुना है"…

"तो मैँ चाहता था कि इस बार का…

"देखिए!…आजकल  हमारे फोनों के टेप-टाप होने का खतरा बना रहता है इसलिए अभी ज़्यादा बात करना उचित नहीं"…

"जी!…

“ऐसा करते हैँ…मैँ दो दिन बाद मैँ दिल्ली आ रहा हूँ…आप अपना पता और फोन नम्बर मुझे मेल कर दें… आपके घर पे ही आ जाता हूँ और फिर आराम से बैठ के सारी बातें…सारे मैटर डिस्कस कर लेंगे विस्तार से"…

"जी!…जैसा आप उचित समझें"…

“आप मेरी ई-मेल आई.डी नोट कर लें”….

"जी!…बताएँ"…

आई.डी है व्यवस्थानन्द@नकदनरायण.कॉम

"ठीक है!…मैँ अभी मेल करता हूँ"…

"ओ.के…आपका दिन मँगलमय हो"

"आपका भी"

(दो दिन बाद)

ट्रिंग…ट्रिंग…ट्रिंग….

“हैलो …राजीव जी?”…

"जी!…बोल रहा हूँ"…

"मैँ सैटिंगानन्द!…..बाहर खड़ा कब से कॉलबैल बजा रहा हूँ…लेकिन कोई दरवाज़ा ही नहीं खोल रहा है"..

"ओह!…अच्छा….एक मिनट…मैं अभी आता हूँ"…

“जी!..

(दरवाज़ा खोलने के पश्चात)

“नमस्कार जी"…

“नमस्कार…नमस्कार…कहिये!…कैसे हैं आप?”..

“बहुत बढ़िया…आप सुनाएं"…

“मैं भी ठीकठाक…सब कुशल-मंगल"…

“आईए..यहाँ…यहाँ सोफे पे विराजिए"..

“जी!…

"वो दरअसल…क्या है कि आजकल हमारी कॉलबैल खराब  है और ये पड़ोसियों के बच्चे भी पूरी आफत हैँ आफत…एक से एक नौटंकीबाज …एक से एक ड्रामेबाज…मन तो करता है कि एक-एक को पकड़ के दूँ कान के नीचे खींच के एक"….

"छोडिये!…तनेजा जी…बच्चे हैँ…बच्चों का काम है शरारत करना"…

"अरे!…नहीं….आप नहीं जानते इनको…आप तो पहली बार आए हैं…इसलिए ऐसा कह रहे हैं वर्ना ये बच्चे तो ऐसे हैँ कि बड़े-बड़ों के कान कतर डालें…वक्त-बेवक्त तंग करना तो कोई इनसे सीखे…ना दिन देखते हैँ ना रात….फट्ट से घंटी बजाते हैँ  और झट से फुर्र हो जाते हैँ"

"ओह!…

“इसीलिए…इस बार जो घंटी खराब हुई तो ठीक करवाना उचित नहीं समझा"…

"बिलकुल सही किया आपने”…

“आजकल तो वैसे भी बच्चे-बच्चे के पास मोबाईल है…जो आएगा…अपने आप कॉल कर लेगा"…

"जी!…

"सफर में कोई दिक्कत..कोई परेशानी तो नहीं हुई?"…

"नहीं!…ऐसी कोई खास दिक्कत या परेशानी तो नहीं लेकिन बस…थकावट वगैरा तो हो ही जाती है लम्बे सफर में”…

“जी!…

“बदन कुछ-कुछ टूट-टूट सा रहा है" सैटिंगानन्द जी अंगड़ाई लेते हुए बोले…

"ओह!…आप कहें तो थोड़ी मालिश-वालिश…

“नहीं-नहीं…रहने दें…आपको कष्ट होगा"..

“अजी!…काहे का कष्ट?…घर आए मेहमान की सेवा करना तो मेरा परम धर्म है"…

“अरे!…नहीं…रहने दें…घंटे-दो घंटे सुस्ता लूँगा तो ऐसे ही आराम आ जाएगा"…

“जी!… जैसा आप उचित समझें"…

“आपसे मिलने को मन बहुत उतावला था…इसलिए इधर स्टेशन पे गाड़ी रुकी और उधर मैँने ऑटो पकड़ा और सीधा आपके यहाँ पहुँच गया"….

"अच्छा किया"…

"पहले तो सोचा कि किसी होटल-वोटल में कोई आराम दायक कमरा ले के घंटे दो घंटे आराम कर…कमर सीधी कर लेता हूँ …उसके बाद आपसे मिलने चला आऊँगा लेकिन यू नो!…टाईम वेस्ट इज़ मनी वेस्ट"…

"जी!….

“और ऊपर से टू बी फ्रैंक..मुझे पराए देस में ये…होटल वगैरा का पानी रास नहीं आता है और धर्मशाला या सराय में रहने से तो अच्छा है कि बन्दा प्लैटफार्म पर ही लेट-लाट के अपनी कमर का कबाड़ा कर ले”…

“जी!…ये तो है"…

“दरअसल!..इन सस्ते होटलों के भिचभिचे माहौल से बड़ी कोफ्त होती है मुझे…एक तो पैसे के पैसे खर्चो करो…ऊपर से दूसरों के इस्तेमालशुदा बिस्तर पे…

छी!…पता नहीं कैसे-कैसे लोग वहाँ आ के ठहरते होंगे और ना जाने क्या-क्या पुट्ठे-सीधे काम करते होंगे"…

"स्वामी जी!…ज़माना बदल गया है…ट्रैंड बदल गए हैँ…जीने के सारे मायने….सारे कायदे…सारे रंग-ढंग बदल गए हैँ….देश प्रगति की राह पर बाकी सभी उन्नत देशों के साथ कदम से कदम…कँधे से कँधा मिला के चल रहा है और अब तो वैसे भी ग्लोबलाईज़ेशन का ज़माना है…इसलिए..बाहरले देशों का असर तो आएगा ही"…

"आग लगे ऐसे ग्लोबलाईज़ेशन को…ऐसी उन्नति को…ऐसी प्रगति को”…

“जी!…लेकिन…

“ऐसी तरक्की को क्या पकड़ के चाटना है जो खुद को खुद की ही नज़रों में गिरा दे…झुका दे?”..

“जी!…

"ऐसी भी क्या आगे बढने की…ऊँचा उठने की अँधी हवस….जो देश को…देश के आवाम को गर्त में ले जाए…पतन की राह पे ले जाए?"

"जी!…

“खैर!..छोड़ो इस सब को…जिनका काम है…वही गौर करेंगे इस सब पर…अपना क्या है?..हम तो ठहरे मलंग…मस्तमौले फकीर…जहाँ किस्मत ने धक्का देना है…वहीं झुल्ली-बिस्तरा उठा के चल देना है"…

"जी!…

“बस!..यही सब सोच के कि…किसी होटल में जा…धूनी रमाना अपने बस का नहीं…मैं सीधा आपके यहाँ चला आया कि दो-चार…दस दिन जितना भी मन करेगा….राजीव जी के साथ उन्हीं के घर पे…उन्हीं के बिस्तर में बिता लूँगा…आखिर!..हमारे लौटाचन्द जी के परम मित्र जो ठहरे"

"हे हे हे हे….कोई बात नहीं जी…ये भी आप ही का घर है…आप ही का बिस्तर है…जब तक जी में आए ..जहाँ चाहें…अलख जगा..धूनी रमाएँ"…

"ठीक है!…फिर कब करवा रहे हो कागज़ात मेरे नाम?..

"कागज़ात?"…

"अभी आप ही तो ने कहा ना"…

"क्या?"…

"यही कि ..ये भी आप ही का घर है"..

"हे हे हे हे….स्वामी जी!…आपके सैंस ऑफ ह्यूमर का भी कोई जवाब नहीं…भला ऐसा भी कहीं होता है कि….

“आमतौर पर तो नहीं लेकिन हाँ…किस्मत अगर ज्यादा ही मेहरबान हो तो…हो भी सकता है…हें…हें…हें…हें"..

‘हा…हा…हा… वैरी फन्नी”…

“जी!…

“खैर!…ये सब बातें तो चलती ही रहेंगी…पहले आप नहा-धो के फ्रैश हो लें…तब तक मैँ चाय-वाय का प्रबन्ध करवाता हूँ"…

"नहीं वत्स!…चाय की इच्छा नहीं है…आप बेकार की तकलीफ रहने दें"…

"महराज!…इसमें तकलीफ कैसी?"..

"दरअसल!…क्या है कि मैँ चाय पीता ही नहीं हूँ"…

"सच्ची?”…

“जी!…

“वैरी स्ट्रेंज….जैसी आपकी मर्ज़ी…लेकिन अपनी कहूँ तो…सुबह आँख तब खुलती है जब चाय की प्याली बिस्कुट या रस्क के साथ सामने मेज़ पे सज चुकी होती है और फिर काम ही कुछ ऐसा है कि दिन भर किसी ना किसी का आया-गया लगा ही रहता है…इसलिए पूरे दिन में यही कोई आठ से दस कप चाय तो आराम से हो जाती है"…

"आठ-दस कप?"…

"जी!…

“वत्स!…सेहत के साथ यूँ…ऐसे खिलवाड़ अच्छा नहीं"…

"जी!…

“जानते नहीं कि सेहत अच्छी हो..तो सब अच्छा लगता है…वक्त-बेवक्त किसी और ने नहीं बल्कि तुम्हारे शरीर ने ही तुम्हारा साथ देना है"…

“जी!…

“इसलिए…इसे संभाल कर रखो और स्वस्थ रहो"…

“जी!…

“अब मुझे ही देखो…चाय पीना तो दूर की बात है …मैँने आजतक कभी इसकी खाली प्याली को भी सूँघ के नहीं देखा है कि इसकी रंगत कैसी होती है?..इसकी खुशबु कैसी होती है?”…

"ठीक है…स्वामी जी…आप कहते हैं तो मैं कोशिश करूँगा कि इस सब से दूर रहूँ"…

"कोशिश नहीं…वचन दो मुझे"..

“जी!…

"कसम है तुम्हें तुम्हारे आने वाले कल की….खेतों में चलते हल की…जो आज के बाद तुमने कभी चाय को छुआ भी तो"…

"जी!…स्वामी जी!….आपके कहे का मान तो रखना ही पड़ेगा"…

"तो फिर मैँ आपके लिए दूध मँगवाता हूँ?…ठण्डा या गर्म?…कैसा लेना पसन्द करेंगे आप?"…

"दूध?"…

"जी!…

“वो तो मैँ दिन में सिर्फ एक बार ही लेता हूँ…सुबह चार बजे की पूजा के बाद…दो चम्मच शुद्ध देसी घी या फिर…शहद के साथ”…

"ओह!…तो फिर अभी आपके लिए नींबू-पानी या फिर खस का शरबत लेता आऊँ?”मैं उठने का उपक्रम करता हुआ बोला….

“नहीं!…रहने दीजिए…ये सब कष्ट तो आप बस रहने ही दीजिए”…

“अरे!..कष्ट कैसा?…आप मेरे मेहमान हैं और मेहमान की सेवा करना तो…

“अच्छा!…नहीं मानते हो तो मेरा एक काम ही कर दो"…

"जी!…ज़रूर….हुक्म करें"…

"वहाँ!….उधर मेरा कमंडल रखा है…आप उसे ही ला के मुझे दे दें"…

"अभी…इस वक्त आप क्या करेंगे उसका?"..

"दरअसल!..क्या है कि उसमें एक ‘अरिस्टोक्रैट’  का अद्धा रखा है"…

"अद्धा?”…

“हाँ!…अद्धा…दरअसल हुआ क्या  आते वक्त ट्रेन में ऐसे ही किसी श्रधालु का हाथ देख रहा था तो उसी ने…ऐज़ ए गिफ्ट प्रैज़ैंट कर दिया"…

"ओह!…

"अब किसी के श्रद्धा से दिए गए उपहार को मैं कैसे लौटा देता?”…

“जी!…

“आप उसे ही मुझे पकड़ा दें और हो सके तो कुछ नमकीन और स्नैक्स वगैरा भी भिजवा दें"…

"जी!….ज़रूर"…

“जब तक मैँ इसे गटकता हूँ तब तक आप खाने का आर्डर भी कर दें…बड़ी भूख लगी है"सैटिंगानन्द महराज पेट पे हाथ फेरते हुए बोले…

"सोडा भी लेता आऊँ?"मेरे स्वर में व्यंग्य था …

"नहीं!…यू नो…सोडे से मुझे गैस बनती है…और बार-बार गैस छोड़ना बड़ा अजीब सा लगता है…ऑकवर्ड सा लगता है"..

"जी!..

"पता नहीं इन कोला कम्पनियाँ को इस अच्छे भले…साफ-सुथरे पानी में गैस मिला के मिलता क्या है कि वो इसमें मिलावट कर इसे गन्दा कर देती हैँ…अपवित्र  कर देती हैँ?"

"जी!…

"आप एक काम करें…उधर मेरे झोले में शुद्ध गंगाजल पड़ा है…हाँ-हाँ…उसी ‘बैगपाईपर’ की बोतल में…आप उसे ही दे दें…काम चल जाएगा"वो अपने झोले की तरफ इशारा करते हुए बोले…

"जी!…आपने बताया नहीं कि आपका सफर कैसे कटा?"…

"सफर की तो आप पूछें ही मत…एक तो दुनिया भर का भीड़ भड़क्का..ऊपर से लम्बा सफर"…

“जी!…

“धकम्मपेल में हुई थकावट के कारण सारा बदन चूर-चूर हो रहा था और ऊपर से भूख के मारे बुरा हाल"…

“ओह!…

“घर से मैं ले के नहीं चला था और स्टेशनों के खाने का तो तुम्हें पता ही है कि …कैसा होता है?"…

“जी!…तो फिर स्टेशन से उतर के किसी अच्छे से….साफ़-सुथरे रेस्टोरेंट में…

“मैंने भी यही सोचा था कि जा के किसी अच्छे से रैस्टोरैंट में शाही पनीर के साथ ‘चूर-चूर नॉन’ का लुत्फ़ लिया जाए ..

"यू नो!…शाही पनीर के साथ चूर-चूर नॉन का तो मज़ा ही कुछ और है?"

"जी!…ये तो मेरे भी फेवरेट हैँ"…

"गुड!…फिर मैँने सोचा कि बेकार में सौ दो सौ फूंक के क्या फायदा?…लंच टाईम भी होने ही वाला है और…राजीव जी भी तो भोजन करेंगे ही"…

"जी!…

“सो!…क्यों ना उन्हीं के घर का प्रसाद चख पेट-पूजा कर ली जाए?…उन्होंने मेरे लिए भी तो बनवाया ही होगा"

"हे हे हे हे….क्यों नहीं..क्यों नहीं?…बिलकुल सही किया आपने"…

"जी!…

“अब काम की बात करें?"मैं मुद्दे पे आता हुआ बोला…

"नहीं!…जब तक मैँ ये अद्धा गटकता हूँ…तब तक आप खाना लगवा दें क्योंके..पहले पेट पूजा…बाद में काम दूजा"…

"जी!…जैसा आप उचित समझें"…

"भय्यी!…और कोई चाहे कुछ भी कहता रहे लेकिन अपने तो पेट में तो जब तक दो जून अन्न का नहीं पहुँच जाता…तब तक कुछ करने का मन ही नहीं करता"…

"जी!…

“वो कहते हैँ ना कि भूखे पेट तो भजन भी ना सुहाए"

(खाना खाने के बाद)

"मज़ा आ गया…अति स्वादिष्ट….अति स्वादिष्ट"सैटिंगानन्द जी पेट पे हाथ फेर लम्बी सी डकार मारते हुए बोले

"हाँ!..अब बताएँ कि आप उन्हें कैसे जानते हैँ?"

"किन्हें?"…

"अरे!…अपने लौटाचन्द जी को और किन्हे?"…

"ओह!…अच्छा…दरअसल..वो हमारे और हम उनके लंग़ोटिया यार हैँ…अभी कुछ हफ्ते पहले ही मुलाकात हुई थी उनसे"…

"अभी आप कह रहे थे कि वो आपके लँगोटिया यार हैँ?"…

"जी!..

"फिर आप कहने लगे कि अभी कुछ ही हफ्ते पहले मुलाकात हुई?”…

"जी!…

"बात कुछ जमी नहीं"…

“क्या मतलब?”..

“लँगोटिया यार तो उसे कहा जाता है जिसके साथ बचपन की यारी हो…दोस्ती हो"…

"ओह!…आई.एम सॉरी…वैरी सॉरी…मैं आपको बताना तो भूल ही गया था कि लंगोटिया यार से मेरा ये तात्पर्य नहीं था"

"तो फिर क्या मतलब था आपका?"…

"जी!..एक्चुअली….दरअसल बात ये है कि वो मुझे पहली बार हरिद्वार में गंगा मैय्या के तट पे नंगे नहाते हुए मिले थे"

"नंगे?"…

“जी!…

“लेकिन क्यों?”…

“क्यों का क्या मतलब?…हॉबी थी उनकी"…

“नंगे नहाना?”..

“नहीं!… जब भी वो हरिद्वार जाते थे तो नित्यक्रम बन जाता था उनका"..

“क्या?”..

“किसी ना किसी घाट पे हर रोज नहाना"…

“तो?”…

“उस दिन ‘हर की पौढी’ का नंबर था"…

“तो?”…

“वहाँ पर चल रहे मंत्रोचार में  ऐसे खोए कि  उन्हें ध्यान ही नहीं रहा कि…आज पानी का बहाव कुछ ज्यादा तेज है”…

“तो?”..

“तो क्या?…उसी तेज़ बहाव के चलते उनकी लंगोटी जो बह गई थी गंगा नदी में…तो नंगे ही नहाएंगे ना?"…

"ओह!…लेकिन क्या घर से एक ही लंगोटी ले के निकले थे?"

"यही सब डाउट तो मुझे भी हुआ था और मैँने इस बाबत पूछा भी था लेकिन वो कुछ बताने को राज़ी ही नहीं थे"…

"ओह!…

“मैँने उन्हें अपनी ताज़ी-ताज़ी हुई दोस्ती का वास्ता भी दिया लेकिन वो नहीं माने"…

"ओह!…

“आखिर में जब मैँने उनका ढीठपना देख…तंग आ…उनसे वहीँ के वहीँ अपना लँगोट वापिस लेने की धमकी दी तो थोड़ी नानुकर के बाद सब बताने को राज़ी हुए"..

"अच्छा…फिर?"

"उन्होंने बताया कि घर से तो वो तीन ठौ लंगोटी ले के चले थे"…

“ओ.के"…

"एक खुद पहने थे और दो सूटकेस में नौकर के हाथों पैक करवा दी थी"…

"फिर तो उनके पास एक पहनी हुई और दो पैक की हुई…याने के कुल जमा तीन लँगोटियाँ होनी चाहिए थी?"…

"जी!..लेकिन…उनमें से एक को तो उनके साले साहब बिना पूछे ही उठा के चलते बने"…

“ओह!…

"बाद में जब फोन आया तो पता चला कि जनाब तो ‘मँसूरी’ पहुँच गए हैँ ‘कैम्पटी फॉल’ में नहाने के लिए"…

"हाँ!…फिर तो लँगोटी ले जा के उसने ठीक ही किया क्योंकि सख्ती के चलते मँसूरी का प्रशासन वहाँ नंगे नहाने की अनुमति बिलकुल नहीं देता है"..

"जी!…लेकिन मेरे ख्याल से तो लौटाचन्द जी को साफ-साफ कह देना चाहिए था अपने साले साहब को कि वो अपनी लँगोटी खुद खरीदें"…

“जी!..

"लेकिन किस मुँह से मना करते लौटाचन्द जी उसे?…वो खुद कई बार उसी की लँगोटी माँग के ले जा चुके थे…कभी गोवा भ्रमण के नाम पर तो कभी काँवड़ यात्रा के नाम पर और ऊपर से ये जीजा-साले का रिश्ता ही ऐसा है कि कोई कोई इनकार करे तो कैसे?"…

"ओह!…

“वो कहते हैँ ना कि…सारी खुदाई एक तरफ और…जोरू का भाई एक तरफ"…

"जी!…

"इसलिए मना नहीं कर पाए उसे…आखिर…लाडली जोरू का इकलौता भाई जो ठहरा"…

"लेकिन हिसाब से देखा जाए तो एक लँगोटी तो फिर भी बची रहनी चाहिए थी उनके पास"…

"बची रहनी चाहिए थी?…वो कैसे?"..

"अरे!..हाँ..याद आया….आप तो जानते ही हैँ अपने लौटाचन्द जी की..पी के कहीं भी इधर-उधर लुडक जाने की आदत को"…

"जी!..

"बस!…सोचा कि हरिद्वार तो ड्राई सिटी है…वहाँ तो कुछ मिलेगा नहीं…सो..दिल्ली से ही इंग्लिश-देसी …सबका पूरा  इंतज़ाम कर के चले थे कि सफर में कोई दिक्कत ना हो"…

"ठीक किया उन्होंने…रास्ते में अगर मिल भी जाती तो बहुत मँहगी पड़ती"…

"जी!…

“फिर क्या हुआ?”…

“होना क्या था?…खुली छूट मिली तो बस…पीते गए….पीते गए"…

"ओह!…

“नतीजन!…ऐसी चढी कि हरिद्वार पहुँचने के बाद भी …लाख उतारे ना उतरी"…

"ओह"…

"रात भर पता नहीं कहाँ लुड़कते-पुड़कते रहे"…

“ओह!…

"अगले दिन म्यूनिसिपल वालों को गंदी नाली में बेहोश पड़े मिले..पूरा बदन कीचड़ से सना हुआ…बदबू के मारे बुरा हाल"…

"ओह!…

"बदन से धोती…लँगोट सब गायब"…

"ओह!…कोई चोर-चार ले गया होगा"…

"अजी कहाँ?…हरिद्वार के चोर इतने गए गुज़रे भी नहीं कि किसी की इज़्ज़त…किसी की आबरू के साथ यूँ खिलवाड़ करते फिरें"…

"तो फिर?"…

"मेरे ख्याल से शायद…नाली में रहने वाले मुस्तैद चूहे रात भर डिनर के रूप में इन्हीं के कपड़े चबा गए होंगे"

"ओह!…

“बस!…तभी से हमारी उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई"…

"ओ.के”…

"वैसे…एक राज़ की बात बताऊँ?…उनसे कहिएगा नहीं…परम मित्र हैँ मेरे…बुरा मान जाएँगे"…

"जी!..बिलकुल नहीं…आप चिंता ना करें…बेशक सारी दुनिया कल की इधर होती आज इधर हो जाए लेकिन मेरी तरफ से इस बाबत आपको कोई शिकायत नहीं मिलेगी"…

“थैंक्स!…

"आप बेफिक्र हो के कोई भी राज़ की बात मुझ से कह सकते हैँ"…

"लेकिन..कहीं उनको पता चल गया तो?"…

"यूँ समझिए कि जहाँ कोई कॉंफीडैंशल बात इन कानों में पड़ी…वहीं इन कानों को समझो सरकारी  ‘सील’ लग गई"

"गुड"..

“और ये लीजिए….लगे हाथ..ये बड़ा..मोटा सा…किंग साईज़ का ताला भी लग गया मेरी इस कलमुँही ज़ुबान पे"सैटिंगानन्द घप्प से अपना मुंह हथेली द्वारा बन्द करते हुए बोले

“गुड!…वैरी गुड"…

"जहाँ बारह-बारह सी.बी.आई वाले भी लाख कोशिश के बावजूद कुछ उगलवा नहीं पाए…वहाँ ये लौटानन्द चीज़ ही क्या है?"…

"सी.बी.आई. वाले?"…

"हाँ!… ‘सी.बी.आई’ वाले…पागल हैं स्साले…सब के सब"…

?…?…?…?…?

“उल्लू के चरखे…स्साले!..थर्ड डिग्री अपना के बाबा जी के बारे अंट-संट निकलवाना चाहते थे मेरी ज़ुबान से लेकिन मजाल है जो मैँने उफ तक की हो या एक शब्द भी मुँह से निकाला हो"…

"ओह!..

“ये सब तो खैर..आए साल चलता रहता है…कभी इनकम टैक्स और सेल्स टैक्स वालों के छापे…तो कभी  पुलिस और ‘सी.बी.आई’ की रेड"…

“ओह!..

"इनकम टैक्स और सेल्स टैक्स वालों का मामला तो अखबार और मीडिया में भी खूब उछला था कि इनकी फर्म हर साल लाखों करोड़ रुपयों की आयुर्वेदिक दवायियाँ  बेचती है और एक्सपोर्ट भी करती है लेकिन उसके मुकाबले टैक्स आधा भी नहीं भरा जाता"…

"आधा?…

“अरे!…हमारा बस चले तो आधा  क्या हम अधूरा भी ना भरें"…

"लेकिन स्वामी जी!…टैक्स तो भरना ही चाहिए आपको…देश के लिए…देश के लोगों के भले के लिए"…

"पहले अपना…फिर अपनों का भला कर लें..बाद में देश की..देश के लोगों की सोचेंगे"…

"जी!…एक आरोप और भी तो लगा था ना आप पर?"…

"कौन सा?"…

"यही कि आपकी दवाईयों में जानवरो की…

"ओह!…अच्छा…वो वाला…उसमें तो लाल झण्डे वालों की एक ताज़ी-ताज़ी बनी अभिनेत्री…

ऊप्स!…सॉरी…नेत्री ने इलज़ाम लगाया था कि हम अपनी दवाईयों में जानवरों की हड्डियाँ मिलाते….गो मूत्र मिलाते हैँ"..

“जी!…

"उस उल्लू की चरखी को जा के कोई ये बताए तो सही कि बिना हड्डियाँ मिलाए आयुर्वेदिक या यूनानी दवाईयों का निर्माण नहीं हो सकता"…

"जी!…

“और रही गोमूत्र की बात…तो उस जैसी लाभदायक चीज़…उस जैसा एंटीसैप्टिक तो पूरी दुनिया में और कोई नहीं"…

"जी!..उस नेत्री को तो मैँने भी कई बार देखा था टीवी….रेडियो वगैरा में बड़बड़ाते हुए"…

“अरे!..औरतज़ात थी इसलिए बाबा जी ने मेहर की और बक्श दिया वर्ना हमारे सेवादार तो उनके  एक हलके से…महीन से इशारे भर का इंतज़ार कर रहे थे"…

“हम्म!…

“पता भी नहीं चलना था कि कब उस अभिनेत्री…ऊप्स सॉरी नेत्री की हड्डियों का सुरमा बना…और कब वो सुरमा मिक्सर में पिसती दवाईयों के संग घोटे में घुट गया"…

"ये सब तो खैर आपके समझाने से समझ आ गया लेकिन ये पुलिस वाले बाबा जी के पीछे क्यों पड़े हुए थे?"….

"वैसे तो हर महीने…बिना कहे ही पुलिस वालों को और टैक्स वालों को उनकी मंथली पहुँच जाती है लेकिन इस बार मामला कुछ ज़्यादा ही पेचीदा हो गया था एक पागल से आदमी ने  पुलिस में झूठी शिकायत कर दी कि…

“बाबा जी ने उसकी बीवी और जवान बेटी को बहला-फुसला के अपनी सेवादारी में….अपनी तिमारदारी में लगा लिया है"…

"ओह!…

“अरे!..उसकी बीवी या फिर उसकी बेटी दूध पीती बच्ची है जो बहला लिया…फुसला लिया?"

"जी!…..

"अब अपनी मर्ज़ी से कोई बाबा जी की शरण में आना चाहे तो क्या बाबा जी उसे दुत्कार दें?… भगा दें?"…

"हम्म!…

“उसी पागल की देखादेखी एक-दो और ने भी सीधे-सीधे बाबा जी पे अपनी बहन…अपनी बहू को अगवा करने का आरोप जड़ दिया"

"ओह!…फिर क्या हुआ?”…

"होना क्या था?…कोई और आम इनसान  होता तो गुस्से से बौखला उठता…बदला लेने की नीयत से सोचता लेकिन अपने बाबा जी महान हैँ…अपने बाबा जी देवता हैँ"…

"जी!..

"चुपचाप मौन धारण कर  बिना किसी को बताए समाधि में लीन हो गए"….

"ओह"…

"बाद में मामला ठण्डा होने पर ही समाधि से बाहर निकले"…

“हम्म!…

"सहनशक्ति देखो बाबा जी की….विनम्रता देखो बाबा जी की…इतना ज़लील..इतना अपमानित…इतना बेइज़्ज़त होने के बावजूद भी उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा"…

"बस!…सबसे शांति बनाए रखने की अपील करते रहे"…

"जी!…

"और जब बचाव का कोई रास्ता नहीं दिखा तो अपने वकीलों..अपने शुभचिंतकों से सलाह मशवरा करने के बाद कोई चारा ना देख…पुलिस वालों से सैटिंग कर ली और उन्होंने ने जो जो माँगा…चुपचाप बिना किसी ना नुकुर के तुरंत दे दिया"..

"बिलकुल ठीक किया…कौन कुत्तों को मुँह लगाता फिरे?"..

"बदले में पुलिस वालों ने शहर में अमन और शांति बनाए रखने की गर्ज़ से दोनों पक्षों  में समझौता करा दिया"…

"ओह!…

“जब शिकायतकर्ताओं ने आपसी रज़ामंदी और म्यूचुअल अण्डरस्टैडिंग के चलते अपनी सभी शिकायतें वापिस ले ली तो बाबा जी के आश्रम ने भी उन पर थोपे गए सभी केस..सभी मुकदमे बिना किसी शर्त वापिस ले लिए"..

“जी!…

"आप शायद कोई राज़ की बात बताने वाले थे?"…

"राज़ की बात?"…

"जी!…

“हाँ!…याद आया…मैँ तो बस इतना ही कहना चाहता था कि उन्होंने याने के लौटाचन्द जी ने अभी तक मेरी लंगोटी वापिस नहीं की है"…

"हा…हा…हा…वैरी फन्नी…आप तो बहुत हँसाते हो यार"…

"थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट….क्या करूँ?…ऊपरवाले ने बनाया ही कुछ ऐसा है"

"ये ऊपरवाला…कहीं आपसे ऊपरवाली मंज़िल पे तो नहीं रहता?"…

"ही…ही….ही…यू ऑर आल सो वैरी फन्नी"…

"जी!…अपने को भी ऊपरवाले ने कुछ ऐसा ही बनाया है"..

“एक जिज्ञासा थी स्वामी जी"…

"पूछो वत्स"…

"ये जो स्वामी जी के शिविर वगैरा लगते रहते हैँ …पूरे देश में"…

"जी!…

"इन्हें आर्गेनाईज़ करने वाले को भी कोई फायदा होता है इसमें?”..

"फायदा?"…

"जी!…

“अरे!…उनके तो लोक-परलोक सुधर जाते हैं…अगले-पिछले सब पाप धुल जाते हैं…आज़ाद हो जाते हैँ इस मोह-माया के बंधन से..मन शांत एवं निर्मल रहने लगता है…वगैरा..वगैरा"…

"ये बात तो ठीक है लेकिन मेरा मतलब था कि इतने सब इंतज़ाम करने में वक्त और पैसा सब लगता है"…

"वत्स!…हमारे बाबा जी का जो एक बार सतसंग या योग शिविर रखवा लेता है…..वो सारे खर्चे…सारी लागत निकालने के बाद आराम से अपनी तथा अपने परिवार की छह से आठ महीने तक की रोटी निकाल लेता है"… 

"सिर्फ रोटी?"मैं नाक-भौंह सिकोड़ता हुआ बोला…

"और नहीं तो क्या लड्डू-पेड़े?”…

लेकिन सिर्फ इतने भर से….

“एक्चुअली टू बी फ्रैंक…बचता तो बहुत ज़्यादा है लेकिन हमें  ऐसा कहना पड़ता है नहीं तो कभी-कभार कम टिकटें बिकने पर आर्गेनाईज़र लोगों के ऊँची परवान चढे सपने धाराशाई हो जाते हैँ…और हम ठहरे ईश्वर के प्रकोप से डरने वाले सीधे-साधे लोग…इसलिए!…अपने भक्तों को दुखी नहीं देख सकते…निराश नहीं देख सकते" ..

"ओह!…वैसे आजकल बाबा जी का रेट क्या चल रहा है"…

“रेट?”…

“जी!…

“फॉर यूअर काईंड इन्फार्मेशन…बाबा जी बिकाऊ नहीं हैं"…

“म्मेरा…मेरा ये मतलब नहीं था…ममैं…तो बस इतना ही पूछना चाहता था कि सात दिन के एक शिविर में बाबा जी के विजिट के कितने चार्जेज हैं?”…

“ओह!…तो फिर ऐसा कहना था ना…लैट मी कैलकुलेट…. सात दिनों के ना?”…

“जी!…

“पचास लाख" सैटिंगानन्द महराज जेब से कैलकुलेटर निकाल कुछ हिसाब लगाते हुए बोले ..

"लेकिन मेरी जानकारी के हिसाब से तो पांच साल पहले बाबा जी ने इतने दिन के ही शिविर के तीस लाख लिए थे"…

"तो क्या हुआ?…इन पिछले पांच सालों में महंगाई का पता है कि कितनी बढ़ गई है?…साग-सब्जियों के दामों में रोजाना नए सिरे से आग लगती है …पेट्रोल-डीज़ल की कीमतें हैं कि काबू में आने का नाम ही नहीं ले रही…जिस चीज़ को हाथ लगाओ…उसी के दाम आसमान को छू रहे होते हैं"…

“जी!…ल्लेकिन…एकदम से इतने ज्यादा…कोई अफोर्ड करे भी तो कैसे?"..

“अरे!..पाँच सालों में तो बैंक पे पड़े रूपए भी दुगने होने को आते हैं…इस हिसाब से देखा जाए तो बाबा जी ने आम आवाम का ध्यान रखते हुए तीस के पचास किए हैँ…साठ नहीं"…

"जी!…

"बातें तो बहुत हो गई…अब क्यों ना काम की बात करते हुए असल मुद्दे पे आया जाए?"…

"जी!…ज़रूर"…

"तो फरमाएं…क्या चाहते हैं आप मुझसे?"..

"यही कि इस बार दिल्ली के शिविर का ठेका मुझे मिलना चाहिए"…

"लेकिन मेरे ख्याल से तो इस बार की डील शायद मेहरा ग्रुप वालों के साथ फाईनल होने जा रही है"…

"सब आपके हाथ में है…आप जिसे चाहेंगे…वही नोट कूटेगा"

"बात तो आपकी ठीक है लेकिन वो गैडगिल का बच्चा…

"अजी!…लेकिन-वेकिन को मारिए गोली और टू बी फ्रैंक हो के सीधे-सीधे बताईए कि आपका पेट कितने में भरेगा?"..

"ये आपने बहुत बढ़िया बात की…मुझे वही लोग पसन्द आते हैँ जो फाल्तू बातों में टाईम वेस्ट नहीं करते और सीधे मुद्दे की बात करते हैं"…

"जी!…अपनी भी आदत कुछ-कुछ ऐसी ही है"…

"साफ-साफ शब्दों में कहूँ तो ज़्यादा लालच नहीं है मुझे"…

"फिर भी कितना?"…

"जो मन में आए…दे देना"….

"लेकिन बात पहले खुल जाए तो ज़्यादा बेहतर…बाद में दिक्कत पेश नहीं आती….यू नो!…पैसा चीज़ ही ऐसी है कि बाद में बड़ों बड़ों के मन डोल जाते हैँ"

"अरे!…यार…मैँ तो अदना सा…तुच्छ सा प्राणी हूँ…ज़्यादा ऊँची उड़ान उड़ने के बजाय ज़मीन पे चलना पसन्द करता हूँ"…

"पहेलियाँ ना बुझाएं प्लीज़..मुझे इनसे बड़ी कोफ़्त होती है"…

"बस!…आटे में नमक बराबर दे देना"…

"आप साफ-साफ कहें ना कि …कितना?"…

"ठीक है!…बाबा जी का तो आपको पता ही है…पचास लाख उनके और उसका दस परसैंट…याने के पाँच लाख मेरा…टोटल हो गया पचपन लाख"…

"लेकिन जहाँ तक मेरी जानकारी है…मेहरा ग्रुप वाले तो इससे काफी कम में डील फाईनल करने जा रहे थे"…

"जी!…आपकी बात सही है…सच्ची है लेकिन उनके मुँह से निवाला छीनने में यू नो…

"मुझे भी कोई ना कोई जवाब दे उन्हें टालना पड़ेगा..और साथ ही साथ…ऊपर से नीचे तक काफी उठा-पटक करने की ज़रूरत पड़ेगी…कईयों के मुँह बन्द करने पड़ेंगे"…

"जी!…वो तो लौटाचन्द जी ने कहा था किसी और से बात करने के बजाय सीधा ‘सैटिंगानन्द’ जी से ही बात करना…इसीलिए मैँनेआपको कांटैक्ट किया वर्ना वो गैडगिल तो बाबा जी से भी डिस्काउंट दिलाने की बात कह रहा था"..

"उस स्साले!…गैडगिल की तो मैँ…कोई भरोसा नहीं उसका…कई पार्टियों से एडवांस ले के भी मुकर चुका है..आप चाहें तो खुद हमारे दफ्तर से पता कर लें"…

"हम्म!…

"मैँ तो कहता हूँ कि ऐसे काम से क्या फायदा?…बाद में उसके चक्कर काटते रहोगे"…

"जी!…

"वैसे…एक बात टू बी फ्रैंक हो के कहूँ?….

"जी!…ज़रूर"…

‘खाना उसने भी है और खाना मैँने भी है लेकिन जहाँ एक तरफ आजकल वो मोटा होने के लिए ज़्यादा फैट्स…ज़्यादा प्रोटींन वगैरा ले रहा है…वहीं मैँने आजकल पतला होने की ठानी है…इसलिए मार्निंग वॉक के अलावा बाबा ‘रामदेव’ जी का योगा भी शुरू किया है”…

“कमाल के चीज़ है ये योगा भी…यू नो!… पिछले बीस दिनों में…मैँ पंद्र्ह किलो वेट लूज़ कर चुका हूँ"…

"दैट्स नाईस…इसीलिए आप फिट-फिट भी लग रहे हैँ"…

"थैंक्स!..थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट"…

ट्रिंग…ट्रिंग…."…

"एक मिनट…पहले ज़रा ये फोन अटैंड कर लूँ"..

“जी!…बड़े शौक से"…

“हैलो…कौन?"…

"लौटाचन्द जी?”….

"नमस्कार"…

"हाँ जी!…उसी के बारे में बात कर रहे थे"…

"बस!…फाईनल ही समझिए"…

"ठीक है!…एडवांस दिए देता हूँ"…

"कितना?"…

"पाँच लाख से कम नहीं?"…

"लेकिन अभी तो यहाँ…घर पे मेरे पास यही कोई तीन…सवा तीन के आस-पास पड़ा होगा"…

"ठीक है!…आप दो लाख लेते आएँ…आज ही साईनिंग एमाउंट दे के डील फाईनल कर लेते हैँ"…

"जी!…नेक काम में देरी कैसी?"…

"आधे घंटे में पहुँच जाएँगे?"…

"ठीक है!..मैँ वेट कर रहा हूँ"…

“ओ.के…बाय"

(फोन रख दिया जाता है)

"अपने लौटाचन्द जी थे…बस..अभी आते ही होंगे"..

"तो क्या लौटाचन्द जी भी आपके साथ?"…

"जी!…पहली बार आर्गेनाईज़ करने की सोची है ना…इसलिए…पूरा कॉंफीडैंस नहीं है"…

"चिंता ना करो..राम जी सब भली करेंगे…मैँ तो कहता हूँ कि ऐसा चस्का लगेगा कि सारे काम..सारे धन्धे भूल जाओगे…लाखों के वारे-न्यारे होंगे..लाखों के"…

"एक मिनट!..आप बैठें ..मैँ पेमैंट ले आता हूँ"…

"ठीक है…गिनने में भी तो वक्त लगेगा..लेते आइये"…

"जी!..मैं बस..ये गया और वो आया"…

"जी!…

(पांच मिनट बाद)

"लीजिए!…स्वामी जी..गिन लीजिए..पूरे साढे तीन लाख है…बाकी के ढेढ लाख भी बस आते ही होंगे"… 

"जी!…

"और बाबा जी के पेमैंट तो डाईरैक्ट उन्हीं के पास..आश्रम में पहुँचानी है ना?"…

"नहीं!..वहाँ नहीं…आजकल बड़ी सख्ती चल रही है…उड़ती-उड़ती खबर पता चली है कि  कुछ सी.बी.आई वाले सेवादारो के भेष में आश्रम के चप्पे-चप्पे पे नज़र रखे बैठे हैँ"…

"ओह!…तो फिर?"…

"चिंता की कोई बात नहीं…हमारे पास और भी बहुत से जुगाड हैं…वो सेर हैं तो हम सवा सेर"…

"जी!…

"आपको एक कोड वर्ड बताया जाएगा"…

"जी!…

"जो कोई भी वो कोड वर्ड आपको बताए..आप रकम उसी के हवाले कर देना"…

"जी!…

"वो उसे हवाला के जरिए बाहरले मुल्कों में बाबा जी के बेनामी खातो में जमा करवा देगा"..

"जी!…जैसा आप उचित समझें"…

"ठक…ठक..ठक.."

"लगता है कि लौटाचन्द जी आ गए…टाईम के बड़े पाबन्द हैं"..

"जी!..यही लगता है" सैटिंगानन्द महराज घड़ी देखते हुए बोले…

"एक मिनट!…मैँ दरवाज़ा खोल के आता हूँ…आप आराम से गिनिए"…

"जी!..

"आईए!…आईए… S.H.O साहब और गिरफ्तार कर लीजिए इस ढोंगी और पाखँडी को"…

"धोखा"….

"सारे सबूत…आवाज़ और विडियो की शक्ल में रिकार्ड कर लिए हैँ मैँने इसके खिलाफ और आपके दिए इन नोटों पर भी इसकी उँगलियों  के निशान छप चुके होंगे"

"छोडों…छोड़ो मुझे…मैं कहता हूँ…छोड़ो मुझे"..

“कस के पकड़े रहना  S.H.O साहब…कोई भरोसा नहीं इसका”… 

“अरे!…कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी पुलिस मेरा…दो दिन भी अन्दर नहीं रख पाएगी तेरी ये पुलिस मुझे"..

"जानता नहीं कि "बाबा जी महान है"…उनकी की पहुँच कहाँ तक है?"…

"चिंता ना कर…तेरे चहेते बाबा जी के आश्रम में भी रेड पड़ चुकी है"…

"क्क्या?"…

"इधर तेरा विडियो बन रहा था तो उधर उनका भी बन रहा था"…

"क्क्या?"..

"हाँ!…अपने लौटाचन्द जी वहीं है और उन्हीं का फोन था उस वक्त कि….

"काम हो गया है…मार दो हथोड़ा"..

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

Delhi(India)

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rajivtaneja2004@gmail.com

+919810821361

+919213766753

+919136159706

 

>काम हो गया है…मार दो हथोड़ा- राजीव तनेजा

>

***राजीव तनेजा***

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"हैलो!…इज़ इट…+91 804325678 ?”…

"जी!..कहिये"…

"सैटिंगानन्द महराज जी है?"…

"हाँ जी!…बोल रहा हूँ..आप कौन?"

"जी!…मैँ..राजीव बोल रहा हूँ"…

"कहाँ से?”…

"मुँह से"…

"वहाँ से तो सभी बोलते हैँ…क्या आप कहीं और से भी बोलने में महारथ रखते हैँ?"…

"जी नहीं!…मेरा मतलब ये नहीं था"…

"तो फिर क्या तात्पर्य था आपकी बात का?"…

"दरअसल!…मैँ कहना चाहता था कि मैँ शालीमार बाग से बोल रहा हूँ"..

"ओ.के…लेकिन आपको मेरा ये पर्सनल नम्बर कहाँ से मिला?”..

"जी!…दरअसल ..वाराणसी से लौटते समय श्री लौटाचन्द जी ने मुझे आपका ये नम्बर दिया था"…

"अच्छा!…अच्छा…फोन करने का कोई खास मकसद?”…

"जी!…मुझे पता चला था कि इस बार दिल्ली में शिविर का आयोजन होना है"…

"जी!…आपने बिलकुल सही सुना है"…

"तो मैँ चाहता था कि इस बार का…

"देखिए!…आजकल  हमारे फोनों के टेप-टाप होने का खतरा बना रहता है इसलिए अभी ज़्यादा बात करना उचित नहीं"…

"जी!…

“ऐसा करते हैँ…मैँ दो दिन बाद मैँ दिल्ली आ रहा हूँ…आप अपना पता और फोन नम्बर मुझे मेल कर दें… आपके घर पे ही आ जाता हूँ और फिर आराम से बैठ के सारी बातें…सारे मैटर डिस्कस कर लेंगे विस्तार से"…

"जी!…जैसा आप उचित समझें"…

“आप मेरी ई-मेल आई.डी नोट कर लें”….

"जी!…बताएँ"…

आई.डी है व्यवस्थानन्द@नकदनरायण.कॉम

"ठीक है!…मैँ अभी मेल करता हूँ"…

"ओ.के…आपका दिन मँगलमय हो"

"आपका भी"

(दो दिन बाद)

ट्रिंग…ट्रिंग…ट्रिंग….

“हैलो …राजीव जी?”…

"जी!…बोल रहा हूँ"…

"मैँ सैटिंगानन्द!…..बाहर खड़ा कब से कॉलबैल बजा रहा हूँ…लेकिन कोई दरवाज़ा ही नहीं खोल रहा है"..

"ओह!…अच्छा….एक मिनट…मैं अभी आता हूँ"…

“जी!..

(दरवाज़ा खोलने के पश्चात)

“नमस्कार जी"…

“नमस्कार…नमस्कार…कहिये!…कैसे हैं आप?”..

“बहुत बढ़िया…आप सुनाएं"…

“मैं भी ठीकठाक…सब कुशल-मंगल"…

“आईए..यहाँ…यहाँ सोफे पे विराजिए"..

“जी!…

"वो दरअसल…क्या है कि आजकल हमारी कॉलबैल खराब  है और ये पड़ोसियों के बच्चे भी पूरी आफत हैँ आफत…एक से एक नौटंकीबाज …एक से एक ड्रामेबाज…मन तो करता है कि एक-एक को पकड़ के दूँ कान के नीचे खींच के एक"….

"छोडिये!…तनेजा जी…बच्चे हैँ…बच्चों का काम है शरारत करना"…

"अरे!…नहीं….आप नहीं जानते इनको…आप तो पहली बार आए हैं…इसलिए ऐसा कह रहे हैं वर्ना ये बच्चे तो ऐसे हैँ कि बड़े-बड़ों के कान कतर डालें…वक्त-बेवक्त तंग करना तो कोई इनसे सीखे…ना दिन देखते हैँ ना रात….फट्ट से घंटी बजाते हैँ  और झट से फुर्र हो जाते हैँ"

"ओह!…

“इसीलिए…इस बार जो घंटी खराब हुई तो ठीक करवाना उचित नहीं समझा"…

"बिलकुल सही किया आपने”…

“आजकल तो वैसे भी बच्चे-बच्चे के पास मोबाईल है…जो आएगा…अपने आप कॉल कर लेगा"…

"जी!…

"सफर में कोई दिक्कत..कोई परेशानी तो नहीं हुई?"…

"नहीं!…ऐसी कोई खास दिक्कत या परेशानी तो नहीं लेकिन बस…थकावट वगैरा तो हो ही जाती है लम्बे सफर में”…

“जी!…

“बदन कुछ-कुछ टूट-टूट सा रहा है" सैटिंगानन्द जी अंगड़ाई लेते हुए बोले…

"ओह!…आप कहें तो थोड़ी मालिश-वालिश…

“नहीं-नहीं…रहने दें…आपको कष्ट होगा"..

“अजी!…काहे का कष्ट?…घर आए मेहमान की सेवा करना तो मेरा परम धर्म है"…

“अरे!…नहीं…रहने दें…घंटे-दो घंटे सुस्ता लूँगा तो ऐसे ही आराम आ जाएगा"…

“जी!… जैसा आप उचित समझें"…

“आपसे मिलने को मन बहुत उतावला था…इसलिए इधर स्टेशन पे गाड़ी रुकी और उधर मैँने ऑटो पकड़ा और सीधा आपके यहाँ पहुँच गया"….

"अच्छा किया"…

"पहले तो सोचा कि किसी होटल-वोटल में कोई आराम दायक कमरा ले के घंटे दो घंटे आराम कर…कमर सीधी कर लेता हूँ …उसके बाद आपसे मिलने चला आऊँगा लेकिन यू नो!…टाईम वेस्ट इज़ मनी वेस्ट"…

"जी!….

“और ऊपर से टू बी फ्रैंक..मुझे पराए देस में ये…होटल वगैरा का पानी रास नहीं आता है और धर्मशाला या सराय में रहने से तो अच्छा है कि बन्दा प्लैटफार्म पर ही लेट-लाट के अपनी कमर का कबाड़ा कर ले”…

“जी!…ये तो है"…

“दरअसल!..इन सस्ते होटलों के भिचभिचे माहौल से बड़ी कोफ्त होती है मुझे…एक तो पैसे के पैसे खर्चो करो…ऊपर से दूसरों के इस्तेमालशुदा बिस्तर पे…

छी!…पता नहीं कैसे-कैसे लोग वहाँ आ के ठहरते होंगे और ना जाने क्या-क्या पुट्ठे-सीधे काम करते होंगे"…

"स्वामी जी!…ज़माना बदल गया है…ट्रैंड बदल गए हैँ…जीने के सारे मायने….सारे कायदे…सारे रंग-ढंग बदल गए हैँ….देश प्रगति की राह पर बाकी सभी उन्नत देशों के साथ कदम से कदम…कँधे से कँधा मिला के चल रहा है और अब तो वैसे भी ग्लोबलाईज़ेशन का ज़माना है…इसलिए..बाहरले देशों का असर तो आएगा ही"…

"आग लगे ऐसे ग्लोबलाईज़ेशन को…ऐसी उन्नति को…ऐसी प्रगति को”…

“जी!…लेकिन…

“ऐसी तरक्की को क्या पकड़ के चाटना है जो खुद को खुद की ही नज़रों में गिरा दे…झुका दे?”..

“जी!…

"ऐसी भी क्या आगे बढने की…ऊँचा उठने की अँधी हवस….जो देश को…देश के आवाम को गर्त में ले जाए…पतन की राह पे ले जाए?"

"जी!…

“खैर!..छोड़ो इस सब को…जिनका काम है…वही गौर करेंगे इस सब पर…अपना क्या है?..हम तो ठहरे मलंग…मस्तमौले फकीर…जहाँ किस्मत ने धक्का देना है…वहीं झुल्ली-बिस्तरा उठा के चल देना है"…

"जी!…

“बस!..यही सब सोच के कि…किसी होटल में जा…धूनी रमाना अपने बस का नहीं…मैं सीधा आपके यहाँ चला आया कि दो-चार…दस दिन जितना भी मन करेगा….राजीव जी के साथ उन्हीं के घर पे…उन्हीं के बिस्तर में बिता लूँगा…आखिर!..हमारे लौटाचन्द जी के परम मित्र जो ठहरे"

"हे हे हे हे….कोई बात नहीं जी…ये भी आप ही का घर है…आप ही का बिस्तर है…जब तक जी में आए ..जहाँ चाहें…अलख जगा..धूनी रमाएँ"…

"ठीक है!…फिर कब करवा रहे हो कागज़ात मेरे नाम?..

"कागज़ात?"…

"अभी आप ही तो ने कहा ना"…

"क्या?"…

"यही कि ..ये भी आप ही का घर है"..

"हे हे हे हे….स्वामी जी!…आपके सैंस ऑफ ह्यूमर का भी कोई जवाब नहीं…भला ऐसा भी कहीं होता है कि….

“आमतौर पर तो नहीं लेकिन हाँ…किस्मत अगर ज्यादा ही मेहरबान हो तो…हो भी सकता है…हें…हें…हें…हें"..

‘हा…हा…हा… वैरी फन्नी”…

“जी!…

“खैर!…ये सब बातें तो चलती ही रहेंगी…पहले आप नहा-धो के फ्रैश हो लें…तब तक मैँ चाय-वाय का प्रबन्ध करवाता हूँ"…

"नहीं वत्स!…चाय की इच्छा नहीं है…आप बेकार की तकलीफ रहने दें"…

"महराज!…इसमें तकलीफ कैसी?"..

"दरअसल!…क्या है कि मैँ चाय पीता ही नहीं हूँ"…

"सच्ची?”…

“जी!…

“वैरी स्ट्रेंज….जैसी आपकी मर्ज़ी…लेकिन अपनी कहूँ तो…सुबह आँख तब खुलती है जब चाय की प्याली बिस्कुट या रस्क के साथ सामने मेज़ पे सज चुकी होती है और फिर काम ही कुछ ऐसा है कि दिन भर किसी ना किसी का आया-गया लगा ही रहता है…इसलिए पूरे दिन में यही कोई आठ से दस कप चाय तो आराम से हो जाती है"…

"आठ-दस कप?"…

"जी!…

“वत्स!…सेहत के साथ यूँ…ऐसे खिलवाड़ अच्छा नहीं"…

"जी!…

“जानते नहीं कि सेहत अच्छी हो..तो सब अच्छा लगता है…वक्त-बेवक्त किसी और ने नहीं बल्कि तुम्हारे शरीर ने ही तुम्हारा साथ देना है"…

“जी!…

“इसलिए…इसे संभाल कर रखो और स्वस्थ रहो"…

“जी!…

“अब मुझे ही देखो…चाय पीना तो दूर की बात है …मैँने आजतक कभी इसकी खाली प्याली को भी सूँघ के नहीं देखा है कि इसकी रंगत कैसी होती है?..इसकी खुशबु कैसी होती है?”…

"ठीक है…स्वामी जी…आप कहते हैं तो मैं कोशिश करूँगा कि इस सब से दूर रहूँ"…

"कोशिश नहीं…वचन दो मुझे"..

“जी!…

"कसम है तुम्हें तुम्हारे आने वाले कल की….खेतों में चलते हल की…जो आज के बाद तुमने कभी चाय को छुआ भी तो"…

"जी!…स्वामी जी!….आपके कहे का मान तो रखना ही पड़ेगा"…

"तो फिर मैँ आपके लिए दूध मँगवाता हूँ?…ठण्डा या गर्म?…कैसा लेना पसन्द करेंगे आप?"…

"दूध?"…

"जी!…

“वो तो मैँ दिन में सिर्फ एक बार ही लेता हूँ…सुबह चार बजे की पूजा के बाद…दो चम्मच शुद्ध देसी घी या फिर…शहद के साथ”…

"ओह!…तो फिर अभी आपके लिए नींबू-पानी या फिर खस का शरबत लेता आऊँ?”मैं उठने का उपक्रम करता हुआ बोला….

“नहीं!…रहने दीजिए…ये सब कष्ट तो आप बस रहने ही दीजिए”…

“अरे!..कष्ट कैसा?…आप मेरे मेहमान हैं और मेहमान की सेवा करना तो…

“अच्छा!…नहीं मानते हो तो मेरा एक काम ही कर दो"…

"जी!…ज़रूर….हुक्म करें"…

"वहाँ!….उधर मेरा कमंडल रखा है…आप उसे ही ला के मुझे दे दें"…

"अभी…इस वक्त आप क्या करेंगे उसका?"..

"दरअसल!..क्या है कि उसमें एक ‘अरिस्टोक्रैट’  का अद्धा रखा है"…

"अद्धा?”…

“हाँ!…अद्धा…दरअसल हुआ क्या  आते वक्त ट्रेन में ऐसे ही किसी श्रधालु का हाथ देख रहा था तो उसी ने…ऐज़ ए गिफ्ट प्रैज़ैंट कर दिया"…

"ओह!…

"अब किसी के श्रद्धा से दिए गए उपहार को मैं कैसे लौटा देता?”…

“जी!…

“आप उसे ही मुझे पकड़ा दें और हो सके तो कुछ नमकीन और स्नैक्स वगैरा भी भिजवा दें"…

"जी!….ज़रूर"…

“जब तक मैँ इसे गटकता हूँ तब तक आप खाने का आर्डर भी कर दें…बड़ी भूख लगी है"सैटिंगानन्द महराज पेट पे हाथ फेरते हुए बोले…

"सोडा भी लेता आऊँ?"मेरे स्वर में व्यंग्य था …

"नहीं!…यू नो…सोडे से मुझे गैस बनती है…और बार-बार गैस छोड़ना बड़ा अजीब सा लगता है…ऑकवर्ड सा लगता है"..

"जी!..

"पता नहीं इन कोला कम्पनियाँ को इस अच्छे भले…साफ-सुथरे पानी में गैस मिला के मिलता क्या है कि वो इसमें मिलावट कर इसे गन्दा कर देती हैँ…अपवित्र  कर देती हैँ?"

"जी!…

"आप एक काम करें…उधर मेरे झोले में शुद्ध गंगाजल पड़ा है…हाँ-हाँ…उसी ‘बैगपाईपर’ की बोतल में…आप उसे ही दे दें…काम चल जाएगा"वो अपने झोले की तरफ इशारा करते हुए बोले…

"जी!…आपने बताया नहीं कि आपका सफर कैसे कटा?"…

"सफर की तो आप पूछें ही मत…एक तो दुनिया भर का भीड़ भड़क्का..ऊपर से लम्बा सफर"…

“जी!…

“धकम्मपेल में हुई थकावट के कारण सारा बदन चूर-चूर हो रहा था और ऊपर से भूख के मारे बुरा हाल"…

“ओह!…

“घर से मैं ले के नहीं चला था और स्टेशनों के खाने का तो तुम्हें पता ही है कि …कैसा होता है?"…

“जी!…तो फिर स्टेशन से उतर के किसी अच्छे से….साफ़-सुथरे रेस्टोरेंट में…

“मैंने भी यही सोचा था कि जा के किसी अच्छे से रैस्टोरैंट में शाही पनीर के साथ ‘चूर-चूर नॉन’ का लुत्फ़ लिया जाए ..

"यू नो!…शाही पनीर के साथ चूर-चूर नॉन का तो मज़ा ही कुछ और है?"

"जी!…ये तो मेरे भी फेवरेट हैँ"…

"गुड!…फिर मैँने सोचा कि बेकार में सौ दो सौ फूंक के क्या फायदा?…लंच टाईम भी होने ही वाला है और…राजीव जी भी तो भोजन करेंगे ही"…

"जी!…

“सो!…क्यों ना उन्हीं के घर का प्रसाद चख पेट-पूजा कर ली जाए?…उन्होंने मेरे लिए भी तो बनवाया ही होगा"

"हे हे हे हे….क्यों नहीं..क्यों नहीं?…बिलकुल सही किया आपने"…

"जी!…

“अब काम की बात करें?"मैं मुद्दे पे आता हुआ बोला…

"नहीं!…जब तक मैँ ये अद्धा गटकता हूँ…तब तक आप खाना लगवा दें क्योंके..पहले पेट पूजा…बाद में काम दूजा"…

"जी!…जैसा आप उचित समझें"…

"भय्यी!…और कोई चाहे कुछ भी कहता रहे लेकिन अपने तो पेट में तो जब तक दो जून अन्न का नहीं पहुँच जाता…तब तक कुछ करने का मन ही नहीं करता"…

"जी!…

“वो कहते हैँ ना कि भूखे पेट तो भजन भी ना सुहाए"

(खाना खाने के बाद)

"मज़ा आ गया…अति स्वादिष्ट….अति स्वादिष्ट"सैटिंगानन्द जी पेट पे हाथ फेर लम्बी सी डकार मारते हुए बोले

"हाँ!..अब बताएँ कि आप उन्हें कैसे जानते हैँ?"

"किन्हें?"…

"अरे!…अपने लौटाचन्द जी को और किन्हे?"…

"ओह!…अच्छा…दरअसल..वो हमारे और हम उनके लंग़ोटिया यार हैँ…अभी कुछ हफ्ते पहले ही मुलाकात हुई थी उनसे"…

"अभी आप कह रहे थे कि वो आपके लँगोटिया यार हैँ?"…

"जी!..

"फिर आप कहने लगे कि अभी कुछ ही हफ्ते पहले मुलाकात हुई?”…

"जी!…

"बात कुछ जमी नहीं"…

“क्या मतलब?”..

“लँगोटिया यार तो उसे कहा जाता है जिसके साथ बचपन की यारी हो…दोस्ती हो"…

"ओह!…आई.एम सॉरी…वैरी सॉरी…मैं आपको बताना तो भूल ही गया था कि लंगोटिया यार से मेरा ये तात्पर्य नहीं था"

"तो फिर क्या मतलब था आपका?"…

"जी!..एक्चुअली….दरअसल बात ये है कि वो मुझे पहली बार हरिद्वार में गंगा मैय्या के तट पे नंगे नहाते हुए मिले थे"

"नंगे?"…

“जी!…

“लेकिन क्यों?”…

“क्यों का क्या मतलब?…हॉबी थी उनकी"…

“नंगे नहाना?”..

“नहीं!… जब भी वो हरिद्वार जाते थे तो नित्यक्रम बन जाता था उनका"..

“क्या?”..

“किसी ना किसी घाट पे हर रोज नहाना"…

“तो?”…

“उस दिन ‘हर की पौढी’ का नंबर था"…

“तो?”…

“वहाँ पर चल रहे मंत्रोचार में  ऐसे खोए कि  उन्हें ध्यान ही नहीं रहा कि…आज पानी का बहाव कुछ ज्यादा तेज है”…

“तो?”..

“तो क्या?…उसी तेज़ बहाव के चलते उनकी लंगोटी जो बह गई थी गंगा नदी में…तो नंगे ही नहाएंगे ना?"…

"ओह!…लेकिन क्या घर से एक ही लंगोटी ले के निकले थे?"

"यही सब डाउट तो मुझे भी हुआ था और मैँने इस बाबत पूछा भी था लेकिन वो कुछ बताने को राज़ी ही नहीं थे"…

"ओह!…

“मैँने उन्हें अपनी ताज़ी-ताज़ी हुई दोस्ती का वास्ता भी दिया लेकिन वो नहीं माने"…

"ओह!…

“आखिर में जब मैँने उनका ढीठपना देख…तंग आ…उनसे वहीँ के वहीँ अपना लँगोट वापिस लेने की धमकी दी तो थोड़ी नानुकर के बाद सब बताने को राज़ी हुए"..

"अच्छा…फिर?"

"उन्होंने बताया कि घर से तो वो तीन ठौ लंगोटी ले के चले थे"…

“ओ.के"…

"एक खुद पहने थे और दो सूटकेस में नौकर के हाथों पैक करवा दी थी"…

"फिर तो उनके पास एक पहनी हुई और दो पैक की हुई…याने के कुल जमा तीन लँगोटियाँ होनी चाहिए थी?"…

"जी!..लेकिन…उनमें से एक को तो उनके साले साहब बिना पूछे ही उठा के चलते बने"…

“ओह!…

"बाद में जब फोन आया तो पता चला कि जनाब तो ‘मँसूरी’ पहुँच गए हैँ ‘कैम्पटी फॉल’ में नहाने के लिए"…

"हाँ!…फिर तो लँगोटी ले जा के उसने ठीक ही किया क्योंकि सख्ती के चलते मँसूरी का प्रशासन वहाँ नंगे नहाने की अनुमति बिलकुल नहीं देता है"..

"जी!…लेकिन मेरे ख्याल से तो लौटाचन्द जी को साफ-साफ कह देना चाहिए था अपने साले साहब को कि वो अपनी लँगोटी खुद खरीदें"…

“जी!..

"लेकिन किस मुँह से मना करते लौटाचन्द जी उसे?…वो खुद कई बार उसी की लँगोटी माँग के ले जा चुके थे…कभी गोवा भ्रमण के नाम पर तो कभी काँवड़ यात्रा के नाम पर और ऊपर से ये जीजा-साले का रिश्ता ही ऐसा है कि कोई कोई इनकार करे तो कैसे?"…

"ओह!…

“वो कहते हैँ ना कि…सारी खुदाई एक तरफ और…जोरू का भाई एक तरफ"…

"जी!…

"इसलिए मना नहीं कर पाए उसे…आखिर…लाडली जोरू का इकलौता भाई जो ठहरा"…

"लेकिन हिसाब से देखा जाए तो एक लँगोटी तो फिर भी बची रहनी चाहिए थी उनके पास"…

"बची रहनी चाहिए थी?…वो कैसे?"..

"अरे!..हाँ..याद आया….आप तो जानते ही हैँ अपने लौटाचन्द जी की..पी के कहीं भी इधर-उधर लुडक जाने की आदत को"…

"जी!..

"बस!…सोचा कि हरिद्वार तो ड्राई सिटी है…वहाँ तो कुछ मिलेगा नहीं…सो..दिल्ली से ही इंग्लिश-देसी …सबका पूरा  इंतज़ाम कर के चले थे कि सफर में कोई दिक्कत ना हो"…

"ठीक किया उन्होंने…रास्ते में अगर मिल भी जाती तो बहुत मँहगी पड़ती"…

"जी!…

“फिर क्या हुआ?”…

“होना क्या था?…खुली छूट मिली तो बस…पीते गए….पीते गए"…

"ओह!…

“नतीजन!…ऐसी चढी कि हरिद्वार पहुँचने के बाद भी …लाख उतारे ना उतरी"…

"ओह"…

"रात भर पता नहीं कहाँ लुड़कते-पुड़कते रहे"…

“ओह!…

"अगले दिन म्यूनिसिपल वालों को गंदी नाली में बेहोश पड़े मिले..पूरा बदन कीचड़ से सना हुआ…बदबू के मारे बुरा हाल"…

"ओह!…

"बदन से धोती…लँगोट सब गायब"…

"ओह!…कोई चोर-चार ले गया होगा"…

"अजी कहाँ?…हरिद्वार के चोर इतने गए गुज़रे भी नहीं कि किसी की इज़्ज़त…किसी की आबरू के साथ यूँ खिलवाड़ करते फिरें"…

"तो फिर?"…

"मेरे ख्याल से शायद…नाली में रहने वाले मुस्तैद चूहे रात भर डिनर के रूप में इन्हीं के कपड़े चबा गए होंगे"

"ओह!…

“बस!…तभी से हमारी उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई"…

"ओ.के”…

"वैसे…एक राज़ की बात बताऊँ?…उनसे कहिएगा नहीं…परम मित्र हैँ मेरे…बुरा मान जाएँगे"…

"जी!..बिलकुल नहीं…आप चिंता ना करें…बेशक सारी दुनिया कल की इधर होती आज इधर हो जाए लेकिन मेरी तरफ से इस बाबत आपको कोई शिकायत नहीं मिलेगी"…

“थैंक्स!…

"आप बेफिक्र हो के कोई भी राज़ की बात मुझ से कह सकते हैँ"…

"लेकिन..कहीं उनको पता चल गया तो?"…

"यूँ समझिए कि जहाँ कोई कॉंफीडैंशल बात इन कानों में पड़ी…वहीं इन कानों को समझो सरकारी  ‘सील’ लग गई"

"गुड"..

“और ये लीजिए….लगे हाथ..ये बड़ा..मोटा सा…किंग साईज़ का ताला भी लग गया मेरी इस कलमुँही ज़ुबान पे"सैटिंगानन्द घप्प से अपना मुंह हथेली द्वारा बन्द करते हुए बोले

“गुड!…वैरी गुड"…

"जहाँ बारह-बारह सी.बी.आई वाले भी लाख कोशिश के बावजूद कुछ उगलवा नहीं पाए…वहाँ ये लौटानन्द चीज़ ही क्या है?"…

"सी.बी.आई. वाले?"…

"हाँ!… ‘सी.बी.आई’ वाले…पागल हैं स्साले…सब के सब"…

?…?…?…?…?

“उल्लू के चरखे…स्साले!..थर्ड डिग्री अपना के बाबा जी के बारे अंट-संट निकलवाना चाहते थे मेरी ज़ुबान से लेकिन मजाल है जो मैँने उफ तक की हो या एक शब्द भी मुँह से निकाला हो"…

"ओह!..

“ये सब तो खैर..आए साल चलता रहता है…कभी इनकम टैक्स और सेल्स टैक्स वालों के छापे…तो कभी  पुलिस और ‘सी.बी.आई’ की रेड"…

“ओह!..

"इनकम टैक्स और सेल्स टैक्स वालों का मामला तो अखबार और मीडिया में भी खूब उछला था कि इनकी फर्म हर साल लाखों करोड़ रुपयों की आयुर्वेदिक दवायियाँ  बेचती है और एक्सपोर्ट भी करती है लेकिन उसके मुकाबले टैक्स आधा भी नहीं भरा जाता"…

"आधा?…

“अरे!…हमारा बस चले तो आधा  क्या हम अधूरा भी ना भरें"…

"लेकिन स्वामी जी!…टैक्स तो भरना ही चाहिए आपको…देश के लिए…देश के लोगों के भले के लिए"…

"पहले अपना…फिर अपनों का भला कर लें..बाद में देश की..देश के लोगों की सोचेंगे"…

"जी!…एक आरोप और भी तो लगा था ना आप पर?"…

"कौन सा?"…

"यही कि आपकी दवाईयों में जानवरो की…

"ओह!…अच्छा…वो वाला…उसमें तो लाल झण्डे वालों की एक ताज़ी-ताज़ी बनी अभिनेत्री…

ऊप्स!…सॉरी…नेत्री ने इलज़ाम लगाया था कि हम अपनी दवाईयों में जानवरों की हड्डियाँ मिलाते….गो मूत्र मिलाते हैँ"..

“जी!…

"उस उल्लू की चरखी को जा के कोई ये बताए तो सही कि बिना हड्डियाँ मिलाए आयुर्वेदिक या यूनानी दवाईयों का निर्माण नहीं हो सकता"…

"जी!…

“और रही गोमूत्र की बात…तो उस जैसी लाभदायक चीज़…उस जैसा एंटीसैप्टिक तो पूरी दुनिया में और कोई नहीं"…

"जी!..उस नेत्री को तो मैँने भी कई बार देखा था टीवी….रेडियो वगैरा में बड़बड़ाते हुए"…

“अरे!..औरतज़ात थी इसलिए बाबा जी ने मेहर की और बक्श दिया वर्ना हमारे सेवादार तो उनके  एक हलके से…महीन से इशारे भर का इंतज़ार कर रहे थे"…

“हम्म!…

“पता भी नहीं चलना था कि कब उस अभिनेत्री…ऊप्स सॉरी नेत्री की हड्डियों का सुरमा बना…और कब वो सुरमा मिक्सर में पिसती दवाईयों के संग घोटे में घुट गया"…

"ये सब तो खैर आपके समझाने से समझ आ गया लेकिन ये पुलिस वाले बाबा जी के पीछे क्यों पड़े हुए थे?"….

"वैसे तो हर महीने…बिना कहे ही पुलिस वालों को और टैक्स वालों को उनकी मंथली पहुँच जाती है लेकिन इस बार मामला कुछ ज़्यादा ही पेचीदा हो गया था एक पागल से आदमी ने  पुलिस में झूठी शिकायत कर दी कि…

“बाबा जी ने उसकी बीवी और जवान बेटी को बहला-फुसला के अपनी सेवादारी में….अपनी तिमारदारी में लगा लिया है"…

"ओह!…

“अरे!..उसकी बीवी या फिर उसकी बेटी दूध पीती बच्ची है जो बहला लिया…फुसला लिया?"

"जी!…..

"अब अपनी मर्ज़ी से कोई बाबा जी की शरण में आना चाहे तो क्या बाबा जी उसे दुत्कार दें?… भगा दें?"…

"हम्म!…

“उसी पागल की देखादेखी एक-दो और ने भी सीधे-सीधे बाबा जी पे अपनी बहन…अपनी बहू को अगवा करने का आरोप जड़ दिया"

"ओह!…फिर क्या हुआ?”…

"होना क्या था?…कोई और आम इनसान  होता तो गुस्से से बौखला उठता…बदला लेने की नीयत से सोचता लेकिन अपने बाबा जी महान हैँ…अपने बाबा जी देवता हैँ"…

"जी!..

"चुपचाप मौन धारण कर  बिना किसी को बताए समाधि में लीन हो गए"….

"ओह"…

"बाद में मामला ठण्डा होने पर ही समाधि से बाहर निकले"…

“हम्म!…

"सहनशक्ति देखो बाबा जी की….विनम्रता देखो बाबा जी की…इतना ज़लील..इतना अपमानित…इतना बेइज़्ज़त होने के बावजूद भी उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा"…

"बस!…सबसे शांति बनाए रखने की अपील करते रहे"…

"जी!…

"और जब बचाव का कोई रास्ता नहीं दिखा तो अपने वकीलों..अपने शुभचिंतकों से सलाह मशवरा करने के बाद कोई चारा ना देख…पुलिस वालों से सैटिंग कर ली और उन्होंने ने जो जो माँगा…चुपचाप बिना किसी ना नुकुर के तुरंत दे दिया"..

"बिलकुल ठीक किया…कौन कुत्तों को मुँह लगाता फिरे?"..

"बदले में पुलिस वालों ने शहर में अमन और शांति बनाए रखने की गर्ज़ से दोनों पक्षों  में समझौता करा दिया"…

"ओह!…

“जब शिकायतकर्ताओं ने आपसी रज़ामंदी और म्यूचुअल अण्डरस्टैडिंग के चलते अपनी सभी शिकायतें वापिस ले ली तो बाबा जी के आश्रम ने भी उन पर थोपे गए सभी केस..सभी मुकदमे बिना किसी शर्त वापिस ले लिए"..

“जी!…

"आप शायद कोई राज़ की बात बताने वाले थे?"…

"राज़ की बात?"…

"जी!…

“हाँ!…याद आया…मैँ तो बस इतना ही कहना चाहता था कि उन्होंने याने के लौटाचन्द जी ने अभी तक मेरी लंगोटी वापिस नहीं की है"…

"हा…हा…हा…वैरी फन्नी…आप तो बहुत हँसाते हो यार"…

"थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट….क्या करूँ?…ऊपरवाले ने बनाया ही कुछ ऐसा है"

"ये ऊपरवाला…कहीं आपसे ऊपरवाली मंज़िल पे तो नहीं रहता?"…

"ही…ही….ही…यू ऑर आल सो वैरी फन्नी"…

"जी!…अपने को भी ऊपरवाले ने कुछ ऐसा ही बनाया है"..

“एक जिज्ञासा थी स्वामी जी"…

"पूछो वत्स"…

"ये जो स्वामी जी के शिविर वगैरा लगते रहते हैँ …पूरे देश में"…

"जी!…

"इन्हें आर्गेनाईज़ करने वाले को भी कोई फायदा होता है इसमें?”..

"फायदा?"…

"जी!…

“अरे!…उनके तो लोक-परलोक सुधर जाते हैं…अगले-पिछले सब पाप धुल जाते हैं…आज़ाद हो जाते हैँ इस मोह-माया के बंधन से..मन शांत एवं निर्मल रहने लगता है…वगैरा..वगैरा"…

"ये बात तो ठीक है लेकिन मेरा मतलब था कि इतने सब इंतज़ाम करने में वक्त और पैसा सब लगता है"…

"वत्स!…हमारे बाबा जी का जो एक बार सतसंग या योग शिविर रखवा लेता है…..वो सारे खर्चे…सारी लागत निकालने के बाद आराम से अपनी तथा अपने परिवार की छह से आठ महीने तक की रोटी निकाल लेता है"… 

"सिर्फ रोटी?"मैं नाक-भौंह सिकोड़ता हुआ बोला…

"और नहीं तो क्या लड्डू-पेड़े?”…

लेकिन सिर्फ इतने भर से….

“एक्चुअली टू बी फ्रैंक…बचता तो बहुत ज़्यादा है लेकिन हमें  ऐसा कहना पड़ता है नहीं तो कभी-कभार कम टिकटें बिकने पर आर्गेनाईज़र लोगों के ऊँची परवान चढे सपने धाराशाई हो जाते हैँ…और हम ठहरे ईश्वर के प्रकोप से डरने वाले सीधे-साधे लोग…इसलिए!…अपने भक्तों को दुखी नहीं देख सकते…निराश नहीं देख सकते" ..

"ओह!…वैसे आजकल बाबा जी का रेट क्या चल रहा है"…

“रेट?”…

“जी!…

“फॉर यूअर काईंड इन्फार्मेशन…बाबा जी बिकाऊ नहीं हैं"…

“म्मेरा…मेरा ये मतलब नहीं था…ममैं…तो बस इतना ही पूछना चाहता था कि सात दिन के एक शिविर में बाबा जी के विजिट के कितने चार्जेज हैं?”…

“ओह!…तो फिर ऐसा कहना था ना…लैट मी कैलकुलेट…. सात दिनों के ना?”…

“जी!…

“पचास लाख" सैटिंगानन्द महराज जेब से कैलकुलेटर निकाल कुछ हिसाब लगाते हुए बोले ..

"लेकिन मेरी जानकारी के हिसाब से तो पांच साल पहले बाबा जी ने इतने दिन के ही शिविर के तीस लाख लिए थे"…

"तो क्या हुआ?…इन पिछले पांच सालों में महंगाई का पता है कि कितनी बढ़ गई है?…साग-सब्जियों के दामों में रोजाना नए सिरे से आग लगती है …पेट्रोल-डीज़ल की कीमतें हैं कि काबू में आने का नाम ही नहीं ले रही…जिस चीज़ को हाथ लगाओ…उसी के दाम आसमान को छू रहे होते हैं"…

“जी!…ल्लेकिन…एकदम से इतने ज्यादा…कोई अफोर्ड करे भी तो कैसे?"..

“अरे!..पाँच सालों में तो बैंक पे पड़े रूपए भी दुगने होने को आते हैं…इस हिसाब से देखा जाए तो बाबा जी ने आम आवाम का ध्यान रखते हुए तीस के पचास किए हैँ…साठ नहीं"…

"जी!…

"बातें तो बहुत हो गई…अब क्यों ना काम की बात करते हुए असल मुद्दे पे आया जाए?"…

"जी!…ज़रूर"…

"तो फरमाएं…क्या चाहते हैं आप मुझसे?"..

"यही कि इस बार दिल्ली के शिविर का ठेका मुझे मिलना चाहिए"…

"लेकिन मेरे ख्याल से तो इस बार की डील शायद मेहरा ग्रुप वालों के साथ फाईनल होने जा रही है"…

"सब आपके हाथ में है…आप जिसे चाहेंगे…वही नोट कूटेगा"

"बात तो आपकी ठीक है लेकिन वो गैडगिल का बच्चा…

"अजी!…लेकिन-वेकिन को मारिए गोली और टू बी फ्रैंक हो के सीधे-सीधे बताईए कि आपका पेट कितने में भरेगा?"..

"ये आपने बहुत बढ़िया बात की…मुझे वही लोग पसन्द आते हैँ जो फाल्तू बातों में टाईम वेस्ट नहीं करते और सीधे मुद्दे की बात करते हैं"…

"जी!…अपनी भी आदत कुछ-कुछ ऐसी ही है"…

"साफ-साफ शब्दों में कहूँ तो ज़्यादा लालच नहीं है मुझे"…

"फिर भी कितना?"…

"जो मन में आए…दे देना"….

"लेकिन बात पहले खुल जाए तो ज़्यादा बेहतर…बाद में दिक्कत पेश नहीं आती….यू नो!…पैसा चीज़ ही ऐसी है कि बाद में बड़ों बड़ों के मन डोल जाते हैँ"

"अरे!…यार…मैँ तो अदना सा…तुच्छ सा प्राणी हूँ…ज़्यादा ऊँची उड़ान उड़ने के बजाय ज़मीन पे चलना पसन्द करता हूँ"…

"पहेलियाँ ना बुझाएं प्लीज़..मुझे इनसे बड़ी कोफ़्त होती है"…

"बस!…आटे में नमक बराबर दे देना"…

"आप साफ-साफ कहें ना कि …कितना?"…

"ठीक है!…बाबा जी का तो आपको पता ही है…पचास लाख उनके और उसका दस परसैंट…याने के पाँच लाख मेरा…टोटल हो गया पचपन लाख"…

"लेकिन जहाँ तक मेरी जानकारी है…मेहरा ग्रुप वाले तो इससे काफी कम में डील फाईनल करने जा रहे थे"…

"जी!…आपकी बात सही है…सच्ची है लेकिन उनके मुँह से निवाला छीनने में यू नो…

"मुझे भी कोई ना कोई जवाब दे उन्हें टालना पड़ेगा..और साथ ही साथ…ऊपर से नीचे तक काफी उठा-पटक करने की ज़रूरत पड़ेगी…कईयों के मुँह बन्द करने पड़ेंगे"…

"जी!…वो तो लौटाचन्द जी ने कहा था किसी और से बात करने के बजाय सीधा ‘सैटिंगानन्द’ जी से ही बात करना…इसीलिए मैँनेआपको कांटैक्ट किया वर्ना वो गैडगिल तो बाबा जी से भी डिस्काउंट दिलाने की बात कह रहा था"..

"उस स्साले!…गैडगिल की तो मैँ…कोई भरोसा नहीं उसका…कई पार्टियों से एडवांस ले के भी मुकर चुका है..आप चाहें तो खुद हमारे दफ्तर से पता कर लें"…

"हम्म!…

"मैँ तो कहता हूँ कि ऐसे काम से क्या फायदा?…बाद में उसके चक्कर काटते रहोगे"…

"जी!…

"वैसे…एक बात टू बी फ्रैंक हो के कहूँ?….

"जी!…ज़रूर"…

‘खाना उसने भी है और खाना मैँने भी है लेकिन जहाँ एक तरफ आजकल वो मोटा होने के लिए ज़्यादा फैट्स…ज़्यादा प्रोटींन वगैरा ले रहा है…वहीं मैँने आजकल पतला होने की ठानी है…इसलिए मार्निंग वॉक के अलावा बाबा ‘रामदेव’ जी का योगा भी शुरू किया है”…

“कमाल के चीज़ है ये योगा भी…यू नो!… पिछले बीस दिनों में…मैँ पंद्र्ह किलो वेट लूज़ कर चुका हूँ"…

"दैट्स नाईस…इसीलिए आप फिट-फिट भी लग रहे हैँ"…

"थैंक्स!..थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट"…

ट्रिंग…ट्रिंग…."…

"एक मिनट…पहले ज़रा ये फोन अटैंड कर लूँ"..

“जी!…बड़े शौक से"…

“हैलो…कौन?"…

"लौटाचन्द जी?”….

"नमस्कार"…

"हाँ जी!…उसी के बारे में बात कर रहे थे"…

"बस!…फाईनल ही समझिए"…

"ठीक है!…एडवांस दिए देता हूँ"…

"कितना?"…

"पाँच लाख से कम नहीं?"…

"लेकिन अभी तो यहाँ…घर पे मेरे पास यही कोई तीन…सवा तीन के आस-पास पड़ा होगा"…

"ठीक है!…आप दो लाख लेते आएँ…आज ही साईनिंग एमाउंट दे के डील फाईनल कर लेते हैँ"…

"जी!…नेक काम में देरी कैसी?"…

"आधे घंटे में पहुँच जाएँगे?"…

"ठीक है!..मैँ वेट कर रहा हूँ"…

“ओ.के…बाय"

(फोन रख दिया जाता है)

"अपने लौटाचन्द जी थे…बस..अभी आते ही होंगे"..

"तो क्या लौटाचन्द जी भी आपके साथ?"…

"जी!…पहली बार आर्गेनाईज़ करने की सोची है ना…इसलिए…पूरा कॉंफीडैंस नहीं है"…

"चिंता ना करो..राम जी सब भली करेंगे…मैँ तो कहता हूँ कि ऐसा चस्का लगेगा कि सारे काम..सारे धन्धे भूल जाओगे…लाखों के वारे-न्यारे होंगे..लाखों के"…

"एक मिनट!..आप बैठें ..मैँ पेमैंट ले आता हूँ"…

"ठीक है…गिनने में भी तो वक्त लगेगा..लेते आइये"…

"जी!..मैं बस..ये गया और वो आया"…

"जी!…

(पांच मिनट बाद)

"लीजिए!…स्वामी जी..गिन लीजिए..पूरे साढे तीन लाख है…बाकी के ढेढ लाख भी बस आते ही होंगे"… 

"जी!…

"और बाबा जी के पेमैंट तो डाईरैक्ट उन्हीं के पास..आश्रम में पहुँचानी है ना?"…

"नहीं!..वहाँ नहीं…आजकल बड़ी सख्ती चल रही है…उड़ती-उड़ती खबर पता चली है कि  कुछ सी.बी.आई वाले सेवादारो के भेष में आश्रम के चप्पे-चप्पे पे नज़र रखे बैठे हैँ"…

"ओह!…तो फिर?"…

"चिंता की कोई बात नहीं…हमारे पास और भी बहुत से जुगाड हैं…वो सेर हैं तो हम सवा सेर"…

"जी!…

"आपको एक कोड वर्ड बताया जाएगा"…

"जी!…

"जो कोई भी वो कोड वर्ड आपको बताए..आप रकम उसी के हवाले कर देना"…

"जी!…

"वो उसे हवाला के जरिए बाहरले मुल्कों में बाबा जी के बेनामी खातो में जमा करवा देगा"..

"जी!…जैसा आप उचित समझें"…

"ठक…ठक..ठक.."

"लगता है कि लौटाचन्द जी आ गए…टाईम के बड़े पाबन्द हैं"..

"जी!..यही लगता है" सैटिंगानन्द महराज घड़ी देखते हुए बोले…

"एक मिनट!…मैँ दरवाज़ा खोल के आता हूँ…आप आराम से गिनिए"…

"जी!..

"आईए!…आईए… S.H.O साहब और गिरफ्तार कर लीजिए इस ढोंगी और पाखँडी को"…

"धोखा"….

"सारे सबूत…आवाज़ और विडियो की शक्ल में रिकार्ड कर लिए हैँ मैँने इसके खिलाफ और आपके दिए इन नोटों पर भी इसकी उँगलियों  के निशान छप चुके होंगे"

"छोडों…छोड़ो मुझे…मैं कहता हूँ…छोड़ो मुझे"..

“कस के पकड़े रहना  S.H.O साहब…कोई भरोसा नहीं इसका”… 

“अरे!…कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी पुलिस मेरा…दो दिन भी अन्दर नहीं रख पाएगी तेरी ये पुलिस मुझे"..

"जानता नहीं कि "बाबा जी महान है"…उनकी की पहुँच कहाँ तक है?"…

"चिंता ना कर…तेरे चहेते बाबा जी के आश्रम में भी रेड पड़ चुकी है"…

"क्क्या?"…

"इधर तेरा विडियो बन रहा था तो उधर उनका भी बन रहा था"…

"क्क्या?"..

"हाँ!…अपने लौटाचन्द जी वहीं है और उन्हीं का फोन था उस वक्त कि….

"काम हो गया है…मार दो हथोड़ा"..

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

Delhi(India)

http://hansteraho.blogspot.com

rajivtaneja2004@gmail.com

+919810821361

+919213766753

+919136159706

 

कोई मेरी सुने..तब ना

***राजीव तनेजा***

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"गज़ब हो गया…कमाल हो गया…जनता के टूटे दिलों पर भीषण आघात हो गया"…

"क्या हो गया शर्मा जी?…आप इस कदर डरे-डरे से…सहमे-सहमे से क्यों हैँ?"…

"दरअसल…

"शहर में कहीं दंगे…कर्फ्यू वगैरा की आशंका तो नहीं?"मैँ संशकित हो घबराए स्वर में बोला…

"नहीं-नहीं!…बिलकुल नहीं"…

"तो फिर?"…

"परम पूज्य संत श्री श्री नाग नागेश्वर जी नहीं रहे"…

"क्या?"…

"जी!…

"ये तो बड़े दुख की बात है"…

"जी"…

"लेकिन कब?"…

"मरणासन्न अवस्था में तो वो कल रात 9.00 बजे के करीब ही पहुँच गए थे लेकिन प्राण उन्होंने 11.00 बजे के आस-पास त्यागे"…

"ओह!…तो क्या किसी बिमारी वगैरा की वजह से?"…

"जी नही!..अपने अंत समय तक तो वो पूरी तरह से तंदुरस्त…सकुशल एवं  भले-चंगे थे और कल सुबह तो उन्होंने मेरे साथ जिम में टोट्टे ताड़ने(लड़कियाँ देखने) के अलावा थोड़ी-बहुत वर्जिश वगैरा भी की थी"..

"कहीं ऐसा तो नहीं?…कि ज़्यादा देर तक दण्ड पेलने से उनके बदन में हरारट सी पैदा हो गई हो और उसी थकान के चलते….

"नहीं-नहीं!…बिलकुल नहीं…उसके बाद उन्होंने अपने हरम में ‘सौना बॉथ’ भी लिया था?"…

"और ‘स्टीम बॉथ’?"…

"जी!…वो भी लिया था बल्कि मैँने तो खुद ही अपने गीले तौलिए से उनका बदन पोंछा था"…

"गुड!…ये आपने बहुत ही अच्छा काम किया"…

"जी!…उनके काम मैँ नहीं आता तो और भला कौन आता?"…

"मतलब?"…

"उस दिन मैँ ही तो वो अकेला शक्स था जो सुबह से लेकर रात तक उनके साथ था"…

"पक्का?"…

"जी!…बिलकुल पक्का….यहाँ तक कि उनके अंत समय में भी मैँ उनके बगल वाले सिंहासन पे विराजमान था"..

"गुड!…फिर तो काम बन गया"…

"क्या?"…

"शर्मा जी!…आप एक काम कीजिए"…

"हुक्म करें"…

"कल के दिन घटित हुई सारी घटनाओं को आप एक बार फिर से  याद कीजिए…शायद…कहीं कोई अहम सूत्र हमसे छूट रहा हो"…

"जी"…

"स्टैप बॉय स्टैप याद कीजिए पूरे वाकये को फिर से…कहीं आपसे कुछ मिस तो नहीं हो रहा है?"…

"ओ.के!…लैट मी थिंक अगेन"शर्मा जी अपने माथे पे ऊँगलियाँ फिराते हुए सोचने लगे…

"यैस्स!….यैस…यैस-यैस…याद आया…मेरे बार-बार आग्रह करने के बावजूद वो ‘जकुज़ी’ बॉथ लेने के लिए मना कर रहे थे"वो उछलते हुए बोले…

"वो किसलिए?"…

"पानी की तीव्र बौछारों से होने वाली गुदगुदी के डर से"..

"ऑर यू श्योर?…आपको पूरा विश्वास है?"…

"100% पक्का तो नहीं लेकिन शायद…हो भी सकता है"…

"वैसे लगभग अपने हर सतसंग में वो यही कहा करते थे कि ‘जकुज़ी’ में नहाने से आदमी को यथासंभव बचना चाहिए"…

"और औरतों को?"…

"उनके इतिहास के सिमटे हुए पन्नों को फिर से पलट के देखता हूँ तो पाता हूँ कि…’औरतें…ना नहाएँ’.. ऐसा फतवा तो उन्होंने  अपने पूरे जीवन काल में कभी जारी नहीं किया"…

"ओह!…

"औरतों से उन्हें भरपूर प्यार जो था"…

"लेकिन आदमियों से उनकी क्या दुश्मनी थी?"…

"मतलब?"…

"आदमियों के द्वारा जकुज़ी के इस्तेमाल को वो हतोत्साहित क्यों करना चाहते थे?"..

"कल वैंकुवर से आए उनके एक परम श्रधालु भक्त ने भी उनसे यही प्रश्न पूछा था"..

"तो फिर क्या जवाब दिया उन्होंने?"..

"अपने आखिरी सतसंग में उन्होंने अपने इस अनन्य भक्त की शंका और जिज्ञासा का निवारण करते हुए  इसी बात पर प्रकाश डाला था कि ‘जकुज़ी’ में पानी की तेज़ बौछारों की वजह से मन के संयम के टूटने की संभावना बनी रहती है…उल्टे-पुल्टे ख्यालात दिमाग के भँवर में गोते लगाने लगते हैँ"…

"जी!…ये तो है"…

"उनके इस उपदेश के बाद इतनी तालियाँ बजी…इतनी तालियाँ बजी कि मैँ ब्याँ नहीं कर सकता"…

"ओह!…तो इसका मतलब बहुत ही बढिया तरीके से उन्होंने सारी साध-संगत का मार्गदर्शन किया?"…

"जी!…लेकिन मेरे मन में उनकी फिलॉसफी या थ्योरी के प्रति कुछ शंकाए हैँ"…

"क्या?"…

"यही कि जो चीज़ महिलाओं के उत्तम हो सकती है…वो पुरुषों के लिए अति उत्तम क्यों नहीं?"…

"मतलब?"…

"मतलब कि एक ही कार्य को करने से हमें बहुत कुछ होता है…और उन निगोड़ियों को कुछ नहीं?"…

"तुम्हारी शंका निर्मूल है वत्स!…मैँ खुद…इस सब का भुक्तभोगी हूँ"…

"मतलब?"…

"इस सारे क्रिया-कलाप का तुम्हारे समक्ष खड़ा प्रत्यक्ष उदाहरण हूँ"…

"कैसे?"…
"हम मियाँ-बीवी ने जब कभी भी सावन के महीने में एक साथ ‘जकुज़ी’ के बॉथ को लिया….तो मैँने खुद को हमेशा परेशान और उसको सदा मस्त पाया"…

"ओह!…लेकिन कैसे?"…

"जहाँ एक तरफ बॉथटब में नहाने के बाद मेरे दिल में बरसों से कुँभकरण की नींद सोए अरमाँ रह-रह कर उठने और मचलने लगते थे..और वहीं दूसरी तरह…सारी की सारी इसी क्रिया को…सेम टू सेम…इसी तरीके से करने के बावजूद भी मेरी अपनी…खुद की बीवी…घोड़े बेच के सोने का उपक्रम सा करने लगती थी"…

"ओह!…दैट्स स्ट्रेंज..बड़ी अजीब बात है"…

"वैसे आम आदमी के नज़रिए से अगर देखा जाए तो ये ‘सौना बॉथ’…ये ‘स्टीम बॉथ’ और ये ‘जकुज़ी’ वगैरा …. सब हम जैसे अमीरों के चोंचले हैँ"….

"मिडल क्लॉस या फिर लोअर मिडल क्लॉस को इन सब चीज़ों से कोई मतलब नहीं होता…कोई सरोकार नहीं होता"…

"अजी छोड़िए!…मतलब कैसे नहीं होता?…आप एक बार इन्हें किसी हैल्थ क्लब का फ्री पैकेज थमा के तो देखिए…कच्छे समेत…बॉथ टब में  छलांग मार सबसे पहले इन्हें ही कूदते पाएँगे"…

"कच्छे समेत?"..

"जी हाँ!…कच्छे समेत"…

"यही तो कमी होती है इन छोटे लोगों में कि इन बेवाकूफों को इतना भी नहीं पता होता कि ऐसे स्नानघरों में  निर्मल आनंद को प्राप्त करने के लिए कपड़ों का तन पे ना होना निहायत ही ज़रूरी और आवश्यक होता है"…

"वो किसलिए?"…

"वो बाधक जो बनते हैँ…रुकावट जो बनते हैँ"…

"ओह!…लेकिन मेरे ख्याल में इसमें इन बेचारों की कोई गलती नहीं होती"…

"वो कैसे?"…

"अब अगर कोई चीज़ आपको मुफ्त में मिलने लगेगी तो आप उसे लेने के लिए झपटेंगे कि नहीं?"…

"बिलकुल झपटूँगा!…ज़रूर झपटूँगा….सौ बार झपटूँगा…आदमी की फितरत ही ऐसी होती है"…

"तो फिर इन निरीह बेचारों को क्यों दोष दे रहे हैँ?"..

"लेकिन फिर लोग अमेरिका से क्यों भाग रहे हैँ?"…

"मतलब?"..

"वहाँ भी ‘स्वाईन फ्लू’ फ्री में मिल रहा है"…

हे…हे…हे…आप भी कमाल करते हैँ शर्मा जी"…

"मतलब?"…

"ऐसी दुखदायी घड़ी में भी आपको मज़ाक की सूझ रही है"…

"अब क्या करूँ?…मेरा तो स्वभाव ही कुछ ऐसा है"…

"लेकिन इतने बड़े संत-महात्मा के निधन पे ऐसी छिछोलेदार हरकतें हम जैसे प्रबुद्ध जनों को शोभा नहीं देती"…

"जी!…ये तो है"…

"सॉरी!….इटस मॉय मिस्टेक…आईन्दा से ऐसी गलती फिर कभी नहीं होगी"…

"लेकिन एक बात तो ज़रूर है"…

"क्या?"…

"स्नान करने के बाद स्वामी जी बहुत खुश थे"…

"ओ.के"…

"वैसे लाख बुराईयाँ सही इस तथाकथित ‘सौना’ और ‘स्टीम बॉथ’ में लेकिन उनके चक्कर में हम इनकी अच्छाईयों को नकार नहीं सकते ना?"…

"जी!…’सौना’ और ‘स्टीम बॉथ’ वगैरा के बाद आदमी तरोताज़ा तो हो ही जाता है"…

"जी!…

"तो इसका मतलब उनकी खुशी का कारण भी यही था?"…

"नहीं!…उनकी खुशी की वजह तो कुछ और ही थी"…

"क्या?"…

"आज फिर उन्होंने लेडीज़ बॉथरूम के रौशनदान से…..

"क्या सच?"…

"जी!..बिलकुल लेकिन इस सब के बीच एक छोटी से ना-काबिलेतारीफ घटना घट गई थी उनके साथ"…

"क्या?"…

"जिस बाँस की सीढी पर चढ कर वो रौशनदान में से झाँक रहे थे…वो बीच में से ही टूट गई थी"….

"ओह!…

"टूटना तो उसकी नियति में लिखा था ही लेकिन ये नहीं पता था कि वो इतनी जल्द अपने अंत समय को प्राप्त कर लेगी"…

"ओह!…लेकिन कैसे?"..

"पुरानी हो के जो गल-सड़ चुकी थी"..

"वैसे कुल कितनी उम्र रही होगी उसकी?"…

"पिछले बारह बरस से तो मैँ खुद स्वामी जी को उस के जरिए ऊपर-नीचे होते देख रहा था लेकिन शायद मेरे ख्याल से वो इससे भी ज़्यादा पुरानी थी"…

"ऐसी दकियानूसी सोच की वजह?"…

"एक दिन अपनी मधुर वाणी में स्वामी जी खुद ही बता रहे थे कि…वो लालकिले के पीछे लगने वाले कबाड़ी बाज़ार से इसे पूरे सवा सात रुपए में…खूब मोल-भाव कर के लाए थे"…

"ओ.के"…

"उनकी यही खूबी मुझे सबसे ज़्यादा पसन्द थी"…

"कौन सी खूबी?"…

"यही कि वो कोई भी चीज़ अच्छी तरह मोल-भाव करने के बाद ही लेते थे"..

"गुड!…अच्छी आदत है ये तो"…

"जी!…उनकी बीकानेर वाली चेली भी तो एक दिन खूब इतराते हुए…पूरी संगत के सामने…मजे से बता रही थी कि…गुरू जी हर चीज़ को अच्छी तरह से ठोक-बजा के जाँचने-परखने बाद ही अपनाते हैँ…उनकी इसी खूबी के चलते तो मैँ अपना घर-बार…खेत-मकान…बच्चे…सब कुछ छोड़-छाड़ के अपने अढाई मन गहनों की पोतली के साथ इन्हीं की शरण में चली आई थी"…

"लेकिन जब उनको पता होता है कि रोज़ का चढना-उतरता है…तो सीढी बदलवा क्यों नहीं ली थी?"…

"मैँने भी कई बार उन्हें यही समझाया कि महराज!…ऊपरवाले की खूब दया है आप पर…अब तो ये कँजूसी छोड़ें लेकिन कोई मेरी सुने…तब ना?"…

"कई बार तो नींद में भी मेरा मन शंकित हो खुद से ही कह उठता था कि…समझाओ!…स्वाजी जी महराज को कि…"जो ऐश करनी है…यहीं…इसी धरती पे कर लें…ऊपर साथ कुछ नहीं जाने वाला लेकिन कोई मेरी सुने…तब ना?"…

"आपको प्यार से समझाना चाहिए था"..

"कई बार चेतावनी देते हुए समझाया भी कि किसी दिन लेने के देने पड़ जाएँगे लेकिन….

"कोई आपकी सुने…तब ना?"…

"ज्जी!…सही पहचाना"…

"तो क्या सीढी से गिरने की वजह से ही?…

"नहीं-नहीं!…इस सब में उस बेचारी को क्यों दोष दें?…उसके गिरने की वजह से तो बिलकुल नहीं"…

"तो फिर?"…

"गिरने के बाद तो वो एक झटके से ऐसे उठ गए थे कि मानो कहीं कुछ हुआ ही ना हो"..images

"ओह!…लेकिन…

"हमें परेशान देख उलटा हमारा मज़ाक उड़ाते हुए खी…खी…खी…कर हँसते हुए खिसियाने लगे"…

"ओह!…उसके बाद क्या हुआ?"…

"होना क्या था?…सतसंग के लिए तो पहले से ही देर हो चुकी थी…सो!…बिना किसी और प्रकार की देरी किए वो व्याख्यान देने के लिए सतसंग भवन जा पहुँचे और हँस-हँस कर अपने भक्तोंजनों की शंकाओं का निवारण करने लगे"…

"तो फिर अचानक कैसे?"…

"अब होनी को कौन टाल सकता है तनेजा जी?"…

"यूँ समझ लें की शायद इस धरती पर समय पूरा हो गया था उनका"..

"जी"…

"मुझे तो अभी तक विश्वास नहीं हो रहा कि ऐसी महान पुण्यात्मा अब हमारे बीच नहीं रही"…

"लेकिन ऐसे बिना किसी एडवांस बुकिंग के वो अचानक लुढक कैसे गए?"…

"लुढक गए?…मतलब?"….

"वो दरअसल…

"आपके होश कहाँ गुम हैँ तनेजा जी?"…

"क्यों?…क्या हुआ?"…

"वो किसी ढलान या पठार पर से नहीं लुढके थे बल्कि बारह फुट ऊँची…ये लम्बी सीढी से गिर पड़े थे"…

"ज्जी…वही…मेरा मतलब भी वही था"…

"लेकिन आप तो कुछ और ही बात कह रहे थे कि कैसे वो लुढक गए"…

"मेरा कहने का तात्पर्य था कि अचानक उनकी मृत्यु कैसे हो गई?"…

"मौत कभी पूछ कर आती है क्या?…और फिर अचानक कहाँ?…मौत तो कई दिनों से उनके जीवन की कॉलबैल बजाए चली जा रही थी"…

"मतलब?"..

"पिछले कई दिनों से ही तो उन्हें दुबई और शारजाह से सुपॉरी किलर ‘चाचा चक्रम चौधरी’ चौधराहट वाले’ के धमकी भरे फोन आ रहे थे कि…"बन्द कर अपना ये रोज़ का डुगडुगी बजाना"…

"डुगडुगी बजाना?"…

"जी!…डुगडुगी बजाना"…

"ये काम उन्होंने कब शुरू किया?"…

"कौन सा काम?"…

"डुगडुगी बजाने का"…

"कब से क्या?…जब से दिल्ली आए थे…तभी से डुगडुगी बजा रहे थे"…

"ओह!…लेकिन मैँने तो सुना था कि वो रोज़ाना खुद को जहरीले साँपों से कटवाते थे…कभी बाज़ू पे…तो कभी अपनी टाँग पे"…

"बाजू की बात तो झूठ है लेकिन टाँग वाली बात सच है"…

"इस महात्मायी के धन्धे में उतरने से पहले तो वो सड़कों पे अपने बन्दर के साथ मदारी का खेला दिखाया करते थे"…

"तो फिर उसे क्यों छोड़ दिया?"…

"किसे?…बन्दर को?"…

"हाँ!…उसी को"…

"मेनका के डर से"…

"मतलब?"…

"हर जगह "जानवरों के प्रति अन्याय नहीं सहेंगे…नहीं सहेंगे" …. के नारे जो नुलन्द करती फिरती थी"…

"उसी के चक्कर में रिहा करना पड़ा बन्दर को"…

"बेचारा बन्दर!…ना जाने क्या हुआ होगा उस निरीह के साथ?"….

"वोही तो!…अपना पहले आराम से खा-कमा रहा था…अब दिन-रात खाने-पीने के जुगाड़ में मारा-मार फिर रहा होगा"..

"उसका तो होना होगा…वही हुआ होगा…आप बताएँ कि उसके बाद क्या हुआ?"…

"जी!…उसके बाद जनाब…बन्दर तो चला गया था अपने रस्ते और बस डुगडुग…डुगडुग करती हुई बेचारी डुगडुगी ही अकेली रह गई थी अपने स्वामी जी के पास"…

"ओह!…

"उसके अकेलेपन को दूर करने के लिए ये जँगल से कुछ जहरीले साँप जैसे…पॉयथन…कोबरा और नाग वगैरा को पकड़ लाए…

"और उन्हीं का खेला दिखाने लगे?"…1734_male_snake_charmer_charming_a_snake_in_a_basket

"जी!…बिलकुल…एक से एक अनोखे खेल दिखाने लगे"…

"अनोखे?…मतलब?"…

"उनके द्वारा दिखाया जाने वाला एक मशहूर खेल था…’बीन के आगे मंत्रमुग्ध हो के नाचने वाला"…

"इसमें अनोखे वाली क्या बात है?…सभी सपेरे तो यही खेल दिखाते हैँ"…

"यही तो सबसे खास बात होती थी हमारे स्वामी जी महराज द्वारा दिखाए जाने वाले खेलों की कि वो आम होते हुए भी निहायत ही खास होते थे"…

"सब बकवास!…इस खेल तो बचपन से लेकर जवानी तक मैँ खुद कई मर्तबा देख चुका हूँ…मुझे तो इसमें कोई खास बात नज़र नहीं आई"…

"ओ.के!…तो क्या आपने कहीं देखा है कि बीन को तो नाग देवता लयबद्ध तरीके से खुद बजा रहे हों और उसकी धुन के आगे मदारी झूम-झूम कर नाच रहा हो?"..123

"ओह!…दैट्स स्ट्रेंज…बड़ी अनोखी बात बताई आपने"..

"उनके सारे ही कार्य अनोखे होते थे"…

"मतलब?"…

"आपने सुना या फिर देखा होगा कि साँप आदमी को काट लेते हैँ"…

"जी"…

"लेकिन अपने स्वामी जी तो खुद कई बार साँपों को कटखने कुत्ते की तरह काटते हुए पर भर में ही चट कर जाते थे"…

"बिना पकाए हुए?"…

"जी!..बिना पकाए हुए"…

"ओह!…लेकिन ये सब कैसे?"..

"उन्होंने कभी किसी को पराया नहीं समझा ना"…

"मतलब?"…

"उनके शिष्यों के जमात में जहाँ एक तरफ पढे-लिखे और सभ्य समझे जाने वाले इनसान थे तो दूसरी तरफ निहायत ही अनपढ-गँवार और असभ्य किस्म के भी लोग भी शामिल थे"..

"मतलब?"…

"होनोलुल्लू के जँगलों आए कुछ आदिवासी भी उनके शिष्य थे"…

"ओह!…

"उनका द्वारा दिखाया जाने वाला दूसरा सबसे प्रसिद्ध खेल था…खुद को साँपों द्वारा कटवाना"…

"ओ.के"..

"यही खेल उन्हें ले डूबा"…

"वो कैसे?"…

"कुदरत का करिश्मा देखिए कि विगत बारह वर्षों में उन्होंने हज़ारों दफा खुद को एक से बढकर एक…जहरीले से जहरीले साँपों से कटवाया होगा लेकिन कभी कुछ भी नहीं हुआ लेकिन कल…

"कल क्या हुआ था?"…

"एक छोटे से साँप की ज़रा सी…प्यार भरी फुफकार नहीं झेल पाए और…

"और?"…

"एक ही झटके में राम नाम सत्य"…

"ओह!…

"लेकिन मेरा इशारा एक बार भी अगर वो समझ पाते तो उनकी जान बच सकती थी लेकिन कोई मेरी सुनें तब ना?"…

"क्या सच?"…

"जी!…बिलकुल सच"…

"लेकिन कैसे?"…

"लाख इशारे किए…लाख इशारे कि कि महराज!…साँप के आगे दायीं नहीं….बाँयी टाँग आगे कीजिए लेकिन कोई मेरी सुने..तब ना?"….

"लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है कि टाँग ..दायीं नहीं बल्कि बाँयी आगे करनी चाहिए थी?"…कोई सी भी हो…टाँग…टाँग होती है"…

"अरे वाह!..टाँग…टाँग होती है….तुमने कह दिया…और हो गया?"…

"मतलब?"…

"उनकी दायीं और बाँयी टाँग में कोई फर्क ही नहीं था?"…

"क्या फर्क था?"…

"यही कि उनकी दाँयी टाँग असली और बाँयी टाँग नकली थी"…

"क्या?"…

"जी!…लेकिन कोई मेरी सुने..तब ना?"…

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

Delhi(India)

rajiv.taneja2004@yahoo.com

rajivtaneja2004@gmail.com

http://hansteraho.blogspot.com

+919810821361

+919213766753

 

>कोई मेरी सुने..तब ना

>

***राजीव तनेजा***

 254  

"गज़ब हो गया…कमाल हो गया…जनता के टूटे दिलों पर भीषण आघात हो गया"…

"क्या हो गया शर्मा जी?…आप इस कदर डरे-डरे से…सहमे-सहमे से क्यों हैँ?"…

"दरअसल…

"शहर में कहीं दंगे…कर्फ्यू वगैरा की आशंका तो नहीं?"मैँ संशकित हो घबराए स्वर में बोला…

"नहीं-नहीं!…बिलकुल नहीं"…

"तो फिर?"…

"परम पूज्य संत श्री श्री नाग नागेश्वर जी नहीं रहे"…

"क्या?"…

"जी!…

"ये तो बड़े दुख की बात है"…

"जी"…

"लेकिन कब?"…

"मरणासन्न अवस्था में तो वो कल रात 9.00 बजे के करीब ही पहुँच गए थे लेकिन प्राण उन्होंने 11.00 बजे के आस-पास त्यागे"…

"ओह!…तो क्या किसी बिमारी वगैरा की वजह से?"…

"जी नही!..अपने अंत समय तक तो वो पूरी तरह से तंदुरस्त…सकुशल एवं  भले-चंगे थे और कल सुबह तो उन्होंने मेरे साथ जिम में टोट्टे ताड़ने(लड़कियाँ देखने) के अलावा थोड़ी-बहुत वर्जिश वगैरा भी की थी"..

"कहीं ऐसा तो नहीं?…कि ज़्यादा देर तक दण्ड पेलने से उनके बदन में हरारट सी पैदा हो गई हो और उसी थकान के चलते….

"नहीं-नहीं!…बिलकुल नहीं…उसके बाद उन्होंने अपने हरम में ‘सौना बॉथ’ भी लिया था?"…

"और ‘स्टीम बॉथ’?"…

"जी!…वो भी लिया था बल्कि मैँने तो खुद ही अपने गीले तौलिए से उनका बदन पोंछा था"…

"गुड!…ये आपने बहुत ही अच्छा काम किया"…

"जी!…उनके काम मैँ नहीं आता तो और भला कौन आता?"…

"मतलब?"…

"उस दिन मैँ ही तो वो अकेला शक्स था जो सुबह से लेकर रात तक उनके साथ था"…

"पक्का?"…

"जी!…बिलकुल पक्का….यहाँ तक कि उनके अंत समय में भी मैँ उनके बगल वाले सिंहासन पे विराजमान था"..

"गुड!…फिर तो काम बन गया"…

"क्या?"…

"शर्मा जी!…आप एक काम कीजिए"…

"हुक्म करें"…

"कल के दिन घटित हुई सारी घटनाओं को आप एक बार फिर से  याद कीजिए…शायद…कहीं कोई अहम सूत्र हमसे छूट रहा हो"…

"जी"…

"स्टैप बॉय स्टैप याद कीजिए पूरे वाकये को फिर से…कहीं आपसे कुछ मिस तो नहीं हो रहा है?"…

"ओ.के!…लैट मी थिंक अगेन"शर्मा जी अपने माथे पे ऊँगलियाँ फिराते हुए सोचने लगे…

"यैस्स!….यैस…यैस-यैस…याद आया…मेरे बार-बार आग्रह करने के बावजूद वो ‘जकुज़ी’ बॉथ लेने के लिए मना कर रहे थे"वो उछलते हुए बोले…

"वो किसलिए?"…

"पानी की तीव्र बौछारों से होने वाली गुदगुदी के डर से"..

"ऑर यू श्योर?…आपको पूरा विश्वास है?"…

"100% पक्का तो नहीं लेकिन शायद…हो भी सकता है"…

"वैसे लगभग अपने हर सतसंग में वो यही कहा करते थे कि ‘जकुज़ी’ में नहाने से आदमी को यथासंभव बचना चाहिए"…

"और औरतों को?"…

"उनके इतिहास के सिमटे हुए पन्नों को फिर से पलट के देखता हूँ तो पाता हूँ कि…’औरतें…ना नहाएँ’.. ऐसा फतवा तो उन्होंने  अपने पूरे जीवन काल में कभी जारी नहीं किया"…

"ओह!…

"औरतों से उन्हें भरपूर प्यार जो था"…

"लेकिन आदमियों से उनकी क्या दुश्मनी थी?"…

"मतलब?"…

"आदमियों के द्वारा जकुज़ी के इस्तेमाल को वो हतोत्साहित क्यों करना चाहते थे?"..

"कल वैंकुवर से आए उनके एक परम श्रधालु भक्त ने भी उनसे यही प्रश्न पूछा था"..

"तो फिर क्या जवाब दिया उन्होंने?"..

"अपने आखिरी सतसंग में उन्होंने अपने इस अनन्य भक्त की शंका और जिज्ञासा का निवारण करते हुए  इसी बात पर प्रकाश डाला था कि ‘जकुज़ी’ में पानी की तेज़ बौछारों की वजह से मन के संयम के टूटने की संभावना बनी रहती है…उल्टे-पुल्टे ख्यालात दिमाग के भँवर में गोते लगाने लगते हैँ"…

"जी!…ये तो है"…

"उनके इस उपदेश के बाद इतनी तालियाँ बजी…इतनी तालियाँ बजी कि मैँ ब्याँ नहीं कर सकता"…

"ओह!…तो इसका मतलब बहुत ही बढिया तरीके से उन्होंने सारी साध-संगत का मार्गदर्शन किया?"…

"जी!…लेकिन मेरे मन में उनकी फिलॉसफी या थ्योरी के प्रति कुछ शंकाए हैँ"…

"क्या?"…

"यही कि जो चीज़ महिलाओं के उत्तम हो सकती है…वो पुरुषों के लिए अति उत्तम क्यों नहीं?"…

"मतलब?"…

"मतलब कि एक ही कार्य को करने से हमें बहुत कुछ होता है…और उन निगोड़ियों को कुछ नहीं?"…

"तुम्हारी शंका निर्मूल है वत्स!…मैँ खुद…इस सब का भुक्तभोगी हूँ"…

"मतलब?"…

"इस सारे क्रिया-कलाप का तुम्हारे समक्ष खड़ा प्रत्यक्ष उदाहरण हूँ"…

"कैसे?"…
"हम मियाँ-बीवी ने जब कभी भी सावन के महीने में एक साथ ‘जकुज़ी’ के बॉथ को लिया….तो मैँने खुद को हमेशा परेशान और उसको सदा मस्त पाया"…

"ओह!…लेकिन कैसे?"…

"जहाँ एक तरफ बॉथटब में नहाने के बाद मेरे दिल में बरसों से कुँभकरण की नींद सोए अरमाँ रह-रह कर उठने और मचलने लगते थे..और वहीं दूसरी तरह…सारी की सारी इसी क्रिया को…सेम टू सेम…इसी तरीके से करने के बावजूद भी मेरी अपनी…खुद की बीवी…घोड़े बेच के सोने का उपक्रम सा करने लगती थी"…

"ओह!…दैट्स स्ट्रेंज..बड़ी अजीब बात है"…

"वैसे आम आदमी के नज़रिए से अगर देखा जाए तो ये ‘सौना बॉथ’…ये ‘स्टीम बॉथ’ और ये ‘जकुज़ी’ वगैरा …. सब हम जैसे अमीरों के चोंचले हैँ"….

"मिडल क्लॉस या फिर लोअर मिडल क्लॉस को इन सब चीज़ों से कोई मतलब नहीं होता…कोई सरोकार नहीं होता"…

"अजी छोड़िए!…मतलब कैसे नहीं होता?…आप एक बार इन्हें किसी हैल्थ क्लब का फ्री पैकेज थमा के तो देखिए…कच्छे समेत…बॉथ टब में  छलांग मार सबसे पहले इन्हें ही कूदते पाएँगे"…

"कच्छे समेत?"..

"जी हाँ!…कच्छे समेत"…

"यही तो कमी होती है इन छोटे लोगों में कि इन बेवाकूफों को इतना भी नहीं पता होता कि ऐसे स्नानघरों में  निर्मल आनंद को प्राप्त करने के लिए कपड़ों का तन पे ना होना निहायत ही ज़रूरी और आवश्यक होता है"…

"वो किसलिए?"…

"वो बाधक जो बनते हैँ…रुकावट जो बनते हैँ"…

"ओह!…लेकिन मेरे ख्याल में इसमें इन बेचारों की कोई गलती नहीं होती"…

"वो कैसे?"…

"अब अगर कोई चीज़ आपको मुफ्त में मिलने लगेगी तो आप उसे लेने के लिए झपटेंगे कि नहीं?"…

"बिलकुल झपटूँगा!…ज़रूर झपटूँगा….सौ बार झपटूँगा…आदमी की फितरत ही ऐसी होती है"…

"तो फिर इन निरीह बेचारों को क्यों दोष दे रहे हैँ?"..

"लेकिन फिर लोग अमेरिका से क्यों भाग रहे हैँ?"…

"मतलब?"..

"वहाँ भी ‘स्वाईन फ्लू’ फ्री में मिल रहा है"…

हे…हे…हे…आप भी कमाल करते हैँ शर्मा जी"…

"मतलब?"…

"ऐसी दुखदायी घड़ी में भी आपको मज़ाक की सूझ रही है"…

"अब क्या करूँ?…मेरा तो स्वभाव ही कुछ ऐसा है"…

"लेकिन इतने बड़े संत-महात्मा के निधन पे ऐसी छिछोलेदार हरकतें हम जैसे प्रबुद्ध जनों को शोभा नहीं देती"…

"जी!…ये तो है"…

"सॉरी!….इटस मॉय मिस्टेक…आईन्दा से ऐसी गलती फिर कभी नहीं होगी"…

"लेकिन एक बात तो ज़रूर है"…

"क्या?"…

"स्नान करने के बाद स्वामी जी बहुत खुश थे"…

"ओ.के"…

"वैसे लाख बुराईयाँ सही इस तथाकथित ‘सौना’ और ‘स्टीम बॉथ’ में लेकिन उनके चक्कर में हम इनकी अच्छाईयों को नकार नहीं सकते ना?"…

"जी!…’सौना’ और ‘स्टीम बॉथ’ वगैरा के बाद आदमी तरोताज़ा तो हो ही जाता है"…

"जी!…

"तो इसका मतलब उनकी खुशी का कारण भी यही था?"…

"नहीं!…उनकी खुशी की वजह तो कुछ और ही थी"…

"क्या?"…

"आज फिर उन्होंने लेडीज़ बॉथरूम के रौशनदान से…..

"क्या सच?"…

"जी!..बिलकुल लेकिन इस सब के बीच एक छोटी से ना-काबिलेतारीफ घटना घट गई थी उनके साथ"…

"क्या?"…

"जिस बाँस की सीढी पर चढ कर वो रौशनदान में से झाँक रहे थे…वो बीच में से ही टूट गई थी"….

"ओह!…

"टूटना तो उसकी नियति में लिखा था ही लेकिन ये नहीं पता था कि वो इतनी जल्द अपने अंत समय को प्राप्त कर लेगी"…

"ओह!…लेकिन कैसे?"..

"पुरानी हो के जो गल-सड़ चुकी थी"..

"वैसे कुल कितनी उम्र रही होगी उसकी?"…

"पिछले बारह बरस से तो मैँ खुद स्वामी जी को उस के जरिए ऊपर-नीचे होते देख रहा था लेकिन शायद मेरे ख्याल से वो इससे भी ज़्यादा पुरानी थी"…

"ऐसी दकियानूसी सोच की वजह?"…

"एक दिन अपनी मधुर वाणी में स्वामी जी खुद ही बता रहे थे कि…वो लालकिले के पीछे लगने वाले कबाड़ी बाज़ार से इसे पूरे सवा सात रुपए में…खूब मोल-भाव कर के लाए थे"…

"ओ.के"…

"उनकी यही खूबी मुझे सबसे ज़्यादा पसन्द थी"…

"कौन सी खूबी?"…

"यही कि वो कोई भी चीज़ अच्छी तरह मोल-भाव करने के बाद ही लेते थे"..

"गुड!…अच्छी आदत है ये तो"…

"जी!…उनकी बीकानेर वाली चेली भी तो एक दिन खूब इतराते हुए…पूरी संगत के सामने…मजे से बता रही थी कि…गुरू जी हर चीज़ को अच्छी तरह से ठोक-बजा के जाँचने-परखने बाद ही अपनाते हैँ…उनकी इसी खूबी के चलते तो मैँ अपना घर-बार…खेत-मकान…बच्चे…सब कुछ छोड़-छाड़ के अपने अढाई मन गहनों की पोतली के साथ इन्हीं की शरण में चली आई थी"…

"लेकिन जब उनको पता होता है कि रोज़ का चढना-उतरता है…तो सीढी बदलवा क्यों नहीं ली थी?"…

"मैँने भी कई बार उन्हें यही समझाया कि महराज!…ऊपरवाले की खूब दया है आप पर…अब तो ये कँजूसी छोड़ें लेकिन कोई मेरी सुने…तब ना?"…

"कई बार तो नींद में भी मेरा मन शंकित हो खुद से ही कह उठता था कि…समझाओ!…स्वाजी जी महराज को कि…"जो ऐश करनी है…यहीं…इसी धरती पे कर लें…ऊपर साथ कुछ नहीं जाने वाला लेकिन कोई मेरी सुने…तब ना?"…

"आपको प्यार से समझाना चाहिए था"..

"कई बार चेतावनी देते हुए समझाया भी कि किसी दिन लेने के देने पड़ जाएँगे लेकिन….

"कोई आपकी सुने…तब ना?"…

"ज्जी!…सही पहचाना"…

"तो क्या सीढी से गिरने की वजह से ही?…

"नहीं-नहीं!…इस सब में उस बेचारी को क्यों दोष दें?…उसके गिरने की वजह से तो बिलकुल नहीं"…

"तो फिर?"…

"गिरने के बाद तो वो एक झटके से ऐसे उठ गए थे कि मानो कहीं कुछ हुआ ही ना हो"..images

"ओह!…लेकिन…

"हमें परेशान देख उलटा हमारा मज़ाक उड़ाते हुए खी…खी…खी…कर हँसते हुए खिसियाने लगे"…

"ओह!…उसके बाद क्या हुआ?"…

"होना क्या था?…सतसंग के लिए तो पहले से ही देर हो चुकी थी…सो!…बिना किसी और प्रकार की देरी किए वो व्याख्यान देने के लिए सतसंग भवन जा पहुँचे और हँस-हँस कर अपने भक्तोंजनों की शंकाओं का निवारण करने लगे"…

"तो फिर अचानक कैसे?"…

"अब होनी को कौन टाल सकता है तनेजा जी?"…

"यूँ समझ लें की शायद इस धरती पर समय पूरा हो गया था उनका"..

"जी"…

"मुझे तो अभी तक विश्वास नहीं हो रहा कि ऐसी महान पुण्यात्मा अब हमारे बीच नहीं रही"…

"लेकिन ऐसे बिना किसी एडवांस बुकिंग के वो अचानक लुढक कैसे गए?"…

"लुढक गए?…मतलब?"….

"वो दरअसल…

"आपके होश कहाँ गुम हैँ तनेजा जी?"…

"क्यों?…क्या हुआ?"…

"वो किसी ढलान या पठार पर से नहीं लुढके थे बल्कि बारह फुट ऊँची…ये लम्बी सीढी से गिर पड़े थे"…

"ज्जी…वही…मेरा मतलब भी वही था"…

"लेकिन आप तो कुछ और ही बात कह रहे थे कि कैसे वो लुढक गए"…

"मेरा कहने का तात्पर्य था कि अचानक उनकी मृत्यु कैसे हो गई?"…

"मौत कभी पूछ कर आती है क्या?…और फिर अचानक कहाँ?…मौत तो कई दिनों से उनके जीवन की कॉलबैल बजाए चली जा रही थी"…

"मतलब?"..

"पिछले कई दिनों से ही तो उन्हें दुबई और शारजाह से सुपॉरी किलर ‘चाचा चक्रम चौधरी’ चौधराहट वाले’ के धमकी भरे फोन आ रहे थे कि…"बन्द कर अपना ये रोज़ का डुगडुगी बजाना"…

"डुगडुगी बजाना?"…

"जी!…डुगडुगी बजाना"…

"ये काम उन्होंने कब शुरू किया?"…

"कौन सा काम?"…

"डुगडुगी बजाने का"…

"कब से क्या?…जब से दिल्ली आए थे…तभी से डुगडुगी बजा रहे थे"…

"ओह!…लेकिन मैँने तो सुना था कि वो रोज़ाना खुद को जहरीले साँपों से कटवाते थे…कभी बाज़ू पे…तो कभी अपनी टाँग पे"…

"बाजू की बात तो झूठ है लेकिन टाँग वाली बात सच है"…

"इस महात्मायी के धन्धे में उतरने से पहले तो वो सड़कों पे अपने बन्दर के साथ मदारी का खेला दिखाया करते थे"…

"तो फिर उसे क्यों छोड़ दिया?"…

"किसे?…बन्दर को?"…

"हाँ!…उसी को"…

"मेनका के डर से"…

"मतलब?"…

"हर जगह "जानवरों के प्रति अन्याय नहीं सहेंगे…नहीं सहेंगे" …. के नारे जो नुलन्द करती फिरती थी"…

"उसी के चक्कर में रिहा करना पड़ा बन्दर को"…

"बेचारा बन्दर!…ना जाने क्या हुआ होगा उस निरीह के साथ?"….

"वोही तो!…अपना पहले आराम से खा-कमा रहा था…अब दिन-रात खाने-पीने के जुगाड़ में मारा-मार फिर रहा होगा"..

"उसका तो होना होगा…वही हुआ होगा…आप बताएँ कि उसके बाद क्या हुआ?"…

"जी!…उसके बाद जनाब…बन्दर तो चला गया था अपने रस्ते और बस डुगडुग…डुगडुग करती हुई बेचारी डुगडुगी ही अकेली रह गई थी अपने स्वामी जी के पास"…

"ओह!…

"उसके अकेलेपन को दूर करने के लिए ये जँगल से कुछ जहरीले साँप जैसे…पॉयथन…कोबरा और नाग वगैरा को पकड़ लाए…

"और उन्हीं का खेला दिखाने लगे?"…1734_male_snake_charmer_charming_a_snake_in_a_basket

"जी!…बिलकुल…एक से एक अनोखे खेल दिखाने लगे"…

"अनोखे?…मतलब?"…

"उनके द्वारा दिखाया जाने वाला एक मशहूर खेल था…’बीन के आगे मंत्रमुग्ध हो के नाचने वाला"…

"इसमें अनोखे वाली क्या बात है?…सभी सपेरे तो यही खेल दिखाते हैँ"…

"यही तो सबसे खास बात होती थी हमारे स्वामी जी महराज द्वारा दिखाए जाने वाले खेलों की कि वो आम होते हुए भी निहायत ही खास होते थे"…

"सब बकवास!…इस खेल तो बचपन से लेकर जवानी तक मैँ खुद कई मर्तबा देख चुका हूँ…मुझे तो इसमें कोई खास बात नज़र नहीं आई"…

"ओ.के!…तो क्या आपने कहीं देखा है कि बीन को तो नाग देवता लयबद्ध तरीके से खुद बजा रहे हों और उसकी धुन के आगे मदारी झूम-झूम कर नाच रहा हो?"..123

"ओह!…दैट्स स्ट्रेंज…बड़ी अनोखी बात बताई आपने"..

"उनके सारे ही कार्य अनोखे होते थे"…

"मतलब?"…

"आपने सुना या फिर देखा होगा कि साँप आदमी को काट लेते हैँ"…

"जी"…

"लेकिन अपने स्वामी जी तो खुद कई बार साँपों को कटखने कुत्ते की तरह काटते हुए पर भर में ही चट कर जाते थे"…

"बिना पकाए हुए?"…

"जी!..बिना पकाए हुए"…

"ओह!…लेकिन ये सब कैसे?"..

"उन्होंने कभी किसी को पराया नहीं समझा ना"…

"मतलब?"…

"उनके शिष्यों के जमात में जहाँ एक तरफ पढे-लिखे और सभ्य समझे जाने वाले इनसान थे तो दूसरी तरफ निहायत ही अनपढ-गँवार और असभ्य किस्म के भी लोग भी शामिल थे"..

"मतलब?"…

"होनोलुल्लू के जँगलों आए कुछ आदिवासी भी उनके शिष्य थे"…

"ओह!…

"उनका द्वारा दिखाया जाने वाला दूसरा सबसे प्रसिद्ध खेल था…खुद को साँपों द्वारा कटवाना"…

"ओ.के"..

"यही खेल उन्हें ले डूबा"…

"वो कैसे?"…

"कुदरत का करिश्मा देखिए कि विगत बारह वर्षों में उन्होंने हज़ारों दफा खुद को एक से बढकर एक…जहरीले से जहरीले साँपों से कटवाया होगा लेकिन कभी कुछ भी नहीं हुआ लेकिन कल…

"कल क्या हुआ था?"…

"एक छोटे से साँप की ज़रा सी…प्यार भरी फुफकार नहीं झेल पाए और…

"और?"…

"एक ही झटके में राम नाम सत्य"…

"ओह!…

"लेकिन मेरा इशारा एक बार भी अगर वो समझ पाते तो उनकी जान बच सकती थी लेकिन कोई मेरी सुनें तब ना?"…

"क्या सच?"…

"जी!…बिलकुल सच"…

"लेकिन कैसे?"…

"लाख इशारे किए…लाख इशारे कि कि महराज!…साँप के आगे दायीं नहीं….बाँयी टाँग आगे कीजिए लेकिन कोई मेरी सुने..तब ना?"….

"लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है कि टाँग ..दायीं नहीं बल्कि बाँयी आगे करनी चाहिए थी?"…कोई सी भी हो…टाँग…टाँग होती है"…

"अरे वाह!..टाँग…टाँग होती है….तुमने कह दिया…और हो गया?"…

"मतलब?"…

"उनकी दायीं और बाँयी टाँग में कोई फर्क ही नहीं था?"…

"क्या फर्क था?"…

"यही कि उनकी दाँयी टाँग असली और बाँयी टाँग नकली थी"…

"क्या?"…

"जी!…लेकिन कोई मेरी सुने..तब ना?"…

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

Delhi(India)

rajiv.taneja2004@yahoo.com

rajivtaneja2004@gmail.com

http://hansteraho.blogspot.com

+919810821361

+919213766753

 

"काम हो गया है…मार दो हथोड़ा"

 

"काम हो गया है…हथोड़ा मार दो"

 

***राजीव तनेजा***

 

With_Sadhu_and_Tero_at_Dharamsala_Ashram__Feb__2005

 

"हैलो’

"इज़ इट…+91 804325678 ?…

 

"जी"…

 

"सैटिंगानन्द महराज जी है?"

 

"हाँ जी!…बोल रहा हूँ"..

"आप कौन?"

 

"जी मैँ!…राजीव बोल रहा हूँ"

 

"कहाँ से?

 

"मुँह से"…

 

"वहाँ से तो सभी बोलते हैँ"…

"क्या आप कहीं और से भी बोलने में महारथ रखते हैँ?"

 

"जी?"…

"जी नहीं!…मेरा मतलब ये नहीं था"…

 

"फिर क्या तात्पर्य था आपकी बात का?"…

 

"जी!…मैँ कहना चाहता था कि मैँ शालीमार बाग से बोल रहा हूँ"

 

"ठीक है!…लेकिन पहले आप ये बताएँ कि आपको मेरा ये पर्सनल नम्बर कहाँ से मिला?..और…

उसके बाद फोन करने का मकसद बताएँ""

 

"जी!…मुझे श्री लौटाचन्द जी ने वाराणसी से लौटते समय आपका नम्बर दिया था"

 

"अच्छा!…अच्छा"…

 

"जी!…मुझे पता चला था कि इस बार दिल्ली में शिविर का आयोजन होना है"…

 

"आपने सही सुना है"…

 

"तो मैँ चाहता था कि इस बार का ठेका…

 

"देखिए!…आजकल  हमारे फोनों के टेप-टाप होने का खतरा बना रहता है इसलिए अभी ज़्यादा बात करना उचित नहीं"…

 

"ऐसा करते हैँ…मैँ दो दिन बाद मैँ दिल्ली आ रहा हूँ…आप अपना पता और फोन नम्बर मुझे मेल कर दें"…

मैँ आपके घर पे ही आ जाता हूँ और फिर आराम से बैठ के सारी बातें…सारे मैटर विस्तार से डिस्कस कर लेंगे"…

 

"ठीक है!…जैसा आप उचित समझें"…

 

आप मेरी ई-मेल आई.डी नोट कर लें….

 

"जी!…बताएँ"…

 

आई.डी है व्यवस्थानन्द@नकदनरायण.कॉम

 

"ठीक है!…मैँ अभी मेल करता हूँ"…

 

"ओ.के…आपका दिन मँगलमय हो"

 

"आपका भी"

 

(दो दिन बाद)

 

ट्रिंग…ट्रिंग…ट्रिंग….

 

हैलो …राजीव जी?…

 

"जी!…बोल रहा हूँ"…

 

"मैँ सैटिंगानन्द!…..बाहर खड़ा कब से कॉलबैल बजा रहा हूँ…लेकिन कोई दरवाज़ा ही नहीं खोल रहा है।"..

 

"ओह!…अच्छा….अभी खोल रहा हूँ।"…

"आईए…आईए"..

‘यहाँ…यहाँ सोफे पे विराजिए"..

"वो दरअसल क्या है कि आजकल हमारी कॉलबैल खराब  है।"…

"और ये पड़ोसियों के बच्चे ना!…पूरी की पूरी..आफत हैँ आफत"…

"एक से एक नौटंकीबाज …एक से एक ड्रामेबाज भरा पड़ा है हमारे मोहल्ले में"…

 

"बच्चे हैँ…बच्चों का काम है शरारत करना"…

 

"ये बच्चे तो ऐसे हैँ कि बड़े-बड़ों के कान कतर डालें"…

"वक्त-बेवक्त तंग करना तो कोई इनसे सीखे"…

"ना दिन देखते हैँ ना रात….

फट्ट से घंटी बजाते हैँ  और झट से फुर्र हो जाते हैँ"

"इसलिए इस बार जो घंटी खराब हुई तो ठीक करवाना उचित नहीं समझा"…

 

"बिलकुल सही किया आपने"…

"आजकल तो वैसे भी बच्चे-बच्चे के पास मोबाईल है"…

"जो आएगा…अपने आप कॉल कर लेगा"…

"क्यों?…है कि नहीं"

"खैर!…अब सुनाएँ…..कैसे हैँ आप?"…

 

"मैँ ठीकठाक!…आप सुनाएँ"…

"सफर में कोई दिक्कत..कोई परेशानी तो नहीं?"…

 

"नहीं!…ऐसी कोई खास दिक्कत या परेशानी नहीं लेकिन बस थकावट तो हो ही जाती है लम्बे सफर में…

सो!..बदन कुछ-कुछ टूट-टूट सा रहा है"…

"आपसे मिलने को मन बहुत उतावला था"…

इसलिए इधर स्टेशन पे गाड़ी रुकी और उधर मैँने ऑटो पकड़ा और सीधा आपके यहाँ पहुँच गया"….

 

"अच्छा किया"…

 

"पहले सोचा कि किसी होटल-वोटल में कोई आराम दायक कमरा ले के घंटे दो घंटे आराम करता हूँ…

उसके बाद आपसे मिलने चला आऊँगा"..

"लेकिन यू नो!…टाईम वेस्ट इज़ मनी वेस्ट"

"और ऊपर से टू बी फ्रैंक!..मुझे पराए देस में होटल वगैरा का पानी रास नहीं आता है और…

 

"तो किसी धर्मशाला या सराय….

 

"नहीं जी!..धर्मशाला या सराय में रहने से तो अच्छा है कि बन्दा प्लैटफार्म पर ही लेट-लाट के कमर सीधी कर घड़ी दो घड़ी सुस्ता ले"

"दरअसल!..इन सस्ते होटलों के भिचभिचे माहौल से बड़ी कोफ्त होती है मुझे"…

"एक तो पैसे के पैसे खर्चो करो…ऊपर से दूसरों के इस्तेमालशुदा बिस्तर पे…

छी…

पता नहीं कैसे-कैसे लोग वहाँ आ के ठहरते होंगे?..और ना जाने क्या-क्या पुट्ठे-सीधे काम करते होंगे"…

"मैँ तो कहता हूँ आग लगी हुई है आजकल की नौजवान पीढी को.."…

 

"स्वामी जी!…ज़माना बदल गया है…ट्रैंड बदल गए हैँ"..

"जीने के सारे मायने….सारे कायदे बदल गए हैँ"…

"देश प्रगति की राह पर बाकी सभी उन्नत देशों के साथ कदम से कदम…कँधे से कँधा मिला के चल रहा है।"

"और वैसे भी ग्लोबलाईज़ेशन का ज़माना है…इसलिए!..बाहरले देशों का असर तो आएगा ही"…

"राम…राम!…आग लगे ऐसे ग्लोबलाईज़ेशन को…ऐसी उन्नति को…ऐसी प्रगति को"…

"ऐसी भी क्या आगे बढने की…ऊँचा उठने की अँधी हवस….जो देश को…देश के आवाम को गर्त में ले जाए…पतन की राह पे ले जाए?"

"खैर!..छोड़ो इस सब को…जिनका काम है…वही गौर करेंगे इस सब पर"

"अपना क्या है?..हम तो ठहरे मलंग मस्तमौले फकीर"…

"जहाँ किस्मत ने धक्का देना है…वहीं झुल्ली-बिस्तरा उठा के चल देना है"…

"बस!..यही सब सोच कि किसी होटल-वोटल में डेरा जमा…धूनी रमाना अपने बस का नहीं"…

"सीधा!…आपके यहाँ चला आया कि दो-चार…दस दिन जितना भी मन करेगा….राजीव जी के साथ उन्हीं के घर पे

बिता लूँगा"

"आखिर!..हमारे लौटाचन्द जी के परम मित्र जो ठहरे"

 

"हे हे हे हे….कोई बात नहीं जी"…

"ये भी आप ही का घर है"…

"जब तक जी में आए ..तब तक अलख जगा धूनी रमाएँ"…

 

"ठीक है!…फिर कब करवा रहे हो कागज़ात मेरे नाम?..

 

"कागज़ात?"…

 

"अभी आप ही ने कहा ना"…

 

"क्या?"…

 

"यही कि ..ये भी आप ही का घर है"..

 

"हे हे हे हे"…

"स्वामी जी!…आपके सैंस ऑफ ह्यूमर का भी कोई जवाब नहीं"..

‘खैर!…ये सब बातें तो चलती ही रहेंगी…पहले आप नहा-धो के फ्रैश हो लें…तब तक मैँ चाय-वाय का प्रबन्ध करवाता हूँ"…

 

"नहीं वत्स!…चाय की इच्छा नहीं है…आप बेकार की तकलीफ रहने दें"…

 

"महराज जी!…इसमें तकलीफ कैसी?"..

 

"दरअसल!…मैँ चाय पीता ही नहीं हूँ"…

 

"चाय नहीं पीते हैँ?"…

"ओ.के…जैसी आपकी मर्ज़ी"…

"लेकिन अपनी कहूँ तो…सुबह आँख तब खुलती है जब चाय की प्याली बिस्कुट या रस्क के साथ सामने मेज़ पे सज चुकी होती है और…

दिन भर तो किसी ना किसी का आया-गया लगा ही रहता है"…

"सो!… पूरे दिन में यही कोई आठ से दस कप चाय आराम से हो जाती है"…

 

""आठ से दस कप?"…

"वत्स!…क्या कर रहे हो?"..

"सेहत के साथ यूँ खिलवाड़ अच्छा नहीं"…

"जानते नहीं कि सेहत अच्छी हो..तो सब अच्छा लगता है"…

"वक्त-बेवक्त किसी और ने नहीं बल्कि तुम्हारे शरीर ने ही तुम्हारा साथ देना है"…

इसलिए…इसे संभाल कर रखो…स्वस्थ रखो"…

"मुझे देखो!…चाय पीना तो दूर की बात है …मैँने आजतक कभी इसकी खाली प्याली को भी सूँघ के नहीं देखा"…

 

"ठीक है स्वामी जी!…कोशिश करूँगा कि चाय से दूर रहूँ"…

 

"कोशिश नहीं…वचन दो मुझे"..

"तुम्हें कसम है तुम्हारे आने वाले कल की….खेतों में चलते हल की…

जो तुमने आज के बाद कभी चाय को छुआ भी तो"…

 

"ठीक है स्वामी जी!….आपका मान तो रखना ही पड़ेगा"…

"मैँ आपके लिए दूध मँगवाता हूँ?"…

"ठण्डा या गर्म?"….

"कैसा लेना पसन्द करेंगे आप?"…

 

"दूध?"…

"वो तो मैँ दिन में सिर्फ एक बार….

सुबह चार बजे की पूजा के बाद…

दो चम्मच शुद्ध देसी घी या फिर…शहद के साथ लेता हूँ"…

"ये सब कष्ट आप रहने दें और एक काम करें"…

 

"जी"…

 

"वहाँ!….वहाँ उधर मेरा कमंडल रखा है…उसे मुझे ला के दे दें"…

 

"कमंडल?…अभी क्या करेंगे उसका?"..

 

"दरअसल!..क्या है कि उसमें एक ‘अरिस्टोक्रैट’  का अद्धा रखा है"…

"ट्रेन में ऐसे ही किसी श्रधालु का हाथ देख रहा था…तो उसी ने …ऐज़ ए गिफ्ट प्रैज़ैंट कर दिया"…

 

"ओह!…

 

"आप उसे!…हाँ उसे ही मुझे पकड़ा दें और हो सके तो कुछ नमकीन वगैरा…स्नैक्स वगैरा भिजवा दें"…

"जब तक मैँ इसे गटकता हूँ तब तक आप खाने का आर्डर भी कर ही दें"…

 

"सोडा भी लेता आऊँ?"…

 

"नहीं!…यू नो…सोडे से मुझे गैस बनती है…और बार-बार गैस छोड़ना बड़ा अजीब सा लगता है…ऑकवर्ड सा लगता है"..

 

"गैस?"…

 

"पता नहीं इन कोला कम्पनियाँ को इस अच्छे भले…साफ-सुथरे पानी में गैस मिला के क्या मिलता है?"…

"ना जाने  क्यों मिलावट कर वो इसे गन्दा कर देती हैँ…अपवित्र  कर देती हैँ?"मेरी बात सुने बिना वो बोलते चले गए

 

"जी"…

 

"आप एक काम करें…

उधर!…हाँ उधर मेरे झोले में शुद्ध गंगाजल पड़ा है ..’

हाँ!…उसी…उसी ‘बैगपाईपर’ की बोतल में ही रखा है..

उसे ही दे दें…काम चल जाएगा"वो थैले की तरफ इशारा करते हुए बोले…

 

"ठीक है!…जैसी आपकी मर्ज़ी"…

"आप बताएँ कि सफर कैसे कटा?"…

 

"बस!…सफर की तो आप पूछें मत…..

"एक तो दुनिया भर का भीड़ भड़क्का..ऊपर से लम्बा सफर

धकम्मपेल में हुई थकावट के कारण सारा बदन चूर-चूर हो रहा था और ऊपर से भूख भी लगी हुई थी"…

सो!.. मैने सोचा कि स्टेशन पे उतरने के बाद किसी अच्छे से रैस्टोरैंट में जा कर शाही पनीर के साथ ‘चूर-चूर नॉन’ खाए जाएँ…

"यू नो!…शाही पनीर और चूर-चूर नॉन का मज़ा ही कुछ और है"

 

"जी!…ये तो मेरे भी फेवरेट हैँ"…

 

"फिर मैँने सोचा कि बेकार में सौ दो सौ फूंक के क्या फायदा?"…

"लंच टाईम भी होने ही वाला है और…राजीव जी भी तो भोजन करेंगे ही"…

"सो!…क्यों ना उन्हीं के घर का प्रसाद चख पेट-पूजा कर ली जाए"

उन्होंने मेरे लिए भी तो बनवाया ही होगा"

 

"हे हे हे हे….क्यों नहीं..क्यों नहीं"

"बिलकुल सही किया आपने"…

"हाँ!…तो अब काम की बात करें?"…

 

"नहीं!…जब तक मैँ ये अद्धा गटकता हूँ…तब तक आप खाना लगवा दें क्योंके..

पहले पेट पूजा…बाद में काम दूजा"…

 

"जी!…जैसा आप उचित समझें"…

 

"भय्यी!…और कोई चाहे कुछ भी कहता रहे लेकिन अपने तो पेट में तो जब तक दो जून अन्न का नहीं पहुँच जाता….

तब तक कुछ करने का मन ही नहीं करता"…

"वो कहते हैँ ना कि भूखे पेट तो भजन भी ना सुहाए"

 

(खाना खाने के बाद)

 

"मज़ा आ गया…अति स्वादिष्ट….अति स्वादिष्ट"सैटिंगानन्द जी लम्बी डकार मारते हुए बोले

"हाँ!..अब बताएँ कि आप उन्हें कैसे जानते हैँ?"

 

"किन्हें?"…

 

"अरे!…अपने लौटाचन्द जी को और किन्हे?"…

 

"ओह!…अच्छा"…

"जी!…दरअसल वो हमारे और हम उनके लंग़ोटिया यार हैँ"…

"अभी कुछ हफ्ते पहले ही मुलाकात हुई थी उनसे"

 

"अभी आप कह रहे थे कि वो आपके लँगोटिया यार हैँ"…

 

"जी"…

 
"फिर आप कहने लगे कि अभी कुछ ही हफ्ते पहले मुलाकात हुई"

 

"जी"…

 
"लेकिन लँगोटिया यार तो उसे कहते हैँ जिसके साथ बचपन की यारी हो…दोस्ती हो"…

 
"ओह!…सॉरी….आई.एम वैरी सॉरी"…

दरअसल!…लंगोटिया यार से मेरा ये तात्पर्य नहीं था"

 

"फिर क्या मतलब था आपका?"…

 
"जी!…दरअसल बात ये है कि वो मुझे पहली बार हरिद्वार में गंगा मैय्या के तट पे नंगे नहाते हुए मिले थे"

 

"नंगे?"…

 
‘अब!…वहाँ ‘हर की पौढी’ में तेज़ बहाव के चलते उनकी लंगोटी जो बह गई थी"…

"तो नंगे ही नहाएंगे ना?"…

 

"ओह!…अच्छा"…

"तो क्या घर से एक ही लंगोटी ले के निकले थे?"

 

"यही सब डाउट तो मुझे भी हुआ था और मैँने इस बाबत पूछा भी था लेकिन वो कुछ बताने को राज़ी ही नहीं थे"…

"मैँने उन्हें अपनी ताज़ी-ताज़ी हुई दोस्ती का वास्ता भी दिया लेकिन वो नहीं माने"…

"आखिर में जब मैँने तंग आ कर अपना लँगोट वापिस लेने की धमकी दी तो थोड़ी नानुकर के बाद सब बताने को राज़ी हुए"..

 

"अच्छा…फिर?"

 

"उन्होंने बताया कि घर से तो वो तीन ठौ लंगोटी ले के चले थे"…

"एक खुद पहने थे और दो सूटकेस में नौकर के हाथों पैक करवा दी थी"…

 

"फिर तो उनके पास एक पहनी हुई और दो पैक की हुई याने के कुल जमा तीन लँगोटियाँ होनी चाहिए थी?"…

 

"जी!..लेकिन…उनमें से एक को तो उनके साले साहब बिना पूछे ही उठा के चलते बने"…

"बाद में जब फोन आया तो पता चला कि वो तो ‘मँसूरी’ पहुँच गए हैँ ‘कैम्पटी फॉल’ में नहाने के लिए"…

 

"हाँ!…फिर तो लँगोटी ले जा के उसने ठीक ही किया क्योंकि सख्ती के चलते मँसूरी का प्रशासन वहाँ नंगे नहाने की अनुमति बिलकुल नहीं देता है"..

"लेकिन मेरे ख्याल से तो लौटाचन्द जी को साफ-साफ कह देना चाहिए था अपने साले साहब को कि वो अपनी लँगोटी खुद खरीदें"…

 

"किस मुँह से मना करते लौटाचन्द जी उसे?"…

"वो खुद कई बार उसी की लँगोटी माँग के ले जा चुके थे…कभी गोवा भ्रमण के नाम पर तो कभी काँवड़ यात्रा के नाम पर"…

"और ऊपर से ये जीजा-साले का रिश्ता ही ऐसा है कोई कोई इनकार करे तो कैसे?"…

"वो कहते हैँ ना कि सारी खुदाई एक तरफ और…जोरू का भाई एक तरफ"…

 

"जी"

 

"इसलिए मना नहीं कर पाए उसे"…

"आखिर लाडली जोरू का इकलौता भाई जो ठहरा"…

 

"लेकिन हिसाब से देखा जाए तो एक लँगोटी तो फिर भी बची रहनी चाहिए थी उनके पास"…

 

"बची रहनी चाहिए थी?"…

"वो कैसे?"..

"हाँ!..याद आया….आप तो जानते ही हैँ लौटाचन्द जी की पी के कहीं भी इधर-उधर लुड़क जाने की आदत को"…

 

"जी"…

 

"बस!…सोचा कि हरिद्वार तो ड्राई सिटी है…वहाँ तो कुछ मिलेगा नहीं"…

"सो!…दिल्ली से ही इंग्लिश-देसी सबका पूरा  इंतज़ाम कर के चले थे कि सफर में कोई दिक्कत ना हो"…

 

"ठीक किया उन्होंने…रास्ते में अगर मिल भी जाती तो बहुत मँहगी पड़ती"…

 

"उसके बाद तो बस सारे रस्ते…बस पीते गए….बस पीते गए"…

"नतीजन!…ऐसी चढी कि हरिद्वार पहुँचने के बाद भी …लाख उतारे ना उतरी"…

 

"ओह"…

 

"रात भर पता नहीं कहाँ लुड़कते-पुड़कते रहे"…

"अगले दिन म्यूनिसिपल वालों को गंदी नाली में बेहोश पड़े मिले थे"….

"पूरा बदन कीचड़ से सना हुआ…बदबू के मारे बुरा हाल"…

 

"ओह:…

 

"बदन से धोती लँगोट सब गायब"…

 

"धोती..लंगोट सब गायब?"…

"कोई चोर-चार ले गया होगा"…

 

"अजी कहाँ?…हरिद्वार के चोर इतने गए गुज़रे भी नहीं कि किसी की इज़्ज़त…किसी की आबरू के साथ यूँ खिलवाड़ करते फिरें"…

 

"तो फिर?"…

 

"शायद!…रात भर चूहे  डिनर में इन्हीं के कपड़े चबा गए होंगे"

"और बस तभी से हमारी उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई"…

 

"ओ.के…ओ.के"

 

"वैसे…एक राज़ की बात बताऊँ?"

"उनसे कहिएगा नहीं"…

 

"जी"…

 

"परम मित्र हैँ…बुरा मान जाएँगे"…

 

"जी!..आप चिंता ना करें"…

"बेशक सारी दुनिया इधर की उधर हो जाए लेकिन मेरी तरफ से इस बाबत आपको कोई शिकायत नहीं मिलेगी"…

"आप बेफिक्र हो के कोई भी राज़ की बात मुझ से कह सकते हैँ"…

 

"कहीं उनको पता चल गया तो?"…

 

" यूँ समझिए कि जहाँ कोई कॉंफीडैंशल बात इन कानों में पड़ी…वहीं इन कानों को शीला दीक्षित की सरकारी  ‘सील’ लग गई"

"और साथ ही लगे हाथ..ये बड़ा….मोटा सा …फुल साईज़ का ताला लग गया इस कलमुँही ज़ुबान पे"

"जहाँ बारह-बारह सी.बी.आई वाले भी लाख कोशिश के बावजूद कुछ उगलवा नहीं पाए…वहाँ ये लौटानन्द चीज़ ही क्या है?"…

 

"सी..बी.आई. वाले?"…

 

"अरे!…बस ऐसे ही!…

उल्लू के चर्खे…स्साले!..थर्ड डिग्री अपना के बाबा जी के बारे अंट-संट निकलवाना चाहते थे मेरी ज़ुबान से लेकिन मजाल है जो मैँने उफ तक की हो या ….एक शब्द भी मुँह से निकाला हो"…"…

"ये सब तो खैर!..आए साल चलता रहता है…

"कभी इनकम टैक्स और सेल्स टैक्स वालों के छापे…तो कभी  पुलिस और ‘सी.बी.आई’ की रेड"…

 

"इनकम टैक्स और सेल्स टैक्स वालों का मामला तो अखबार और मीडिया में भी खूब उछला था कि इनकी फर्म हर साल लाखों करोड़ रुपयों की आयुर्वेदिक दवायियाँ  बेचती है और एक्सपोर्ट भी करती है लेकिन उसके मुकाबले टैक्स आधा भी नहीं भरा जाता"…

 

"आधा?…

अरे!…हमारा बस चले तो आधा  क्या हम अधूरा भी ना भरें"…

 

"लेकिन स्वामी जी!…टैक्स तो भरना ही चाहिए आपको"…

देश के लिए …देश के लोगों के भले के लिए"…

 

"पहले अपना…फिर अपनों का…भला कर लें..

बाद में देश की..देश के लोगों की सोचेंगे"…

 

"एक आरोप और भी तो लगा था ना आप पर?"…

 

"कौन सा?"…

 

"यही कि आपकी दवाईयों में जानवरो की…

 

"ओह…अच्छा…वो वाला…

उसमें तो एक लाल झण्डे वालों की ताज़ी-ताज़ी बनी अभिनेत्री…

ऊप्स!…सॉरी …नेत्री ने इलज़ाम लगाया था कि…

हम अपनी दवाईयों में जानवरों की हड्डियाँ मिलाते….गो मूत्र मिलाते हैँ"..

"उस उल्लू की चरखी को कोई जा के ये बताए तो सही कि बिना हड्डियाँ मिलाए…

आयुर्वेदिक या यूनानी दवाईयों का निर्माण नहीं हो सकता है"…

"और रही गोमूत्र की बात!…तो उस जैसी लाभदायक चीज़…उस जैसा एंटीसैप्टिक तो पूरी दुनिया में और कोई नहीं"…

 

"हाँ!..मैँने भी उसए कई बार देखा था टीवी….रेडियो वगैरा में बड़बड़ाते हुए"…

 

अरे!..औरतज़ात थी इसलिए बाबा जी ने मेहर की और…बक्श दिया…

वर्ना हमारे सेवादार तो उनके  एक हलके से…महीन से इशारे का इंतज़ार कर रहे थे"…

पता भी नहीं चलना था कि कब उस अभिनेत्री…ऊप्स सॉरी नेत्री की हड्डियों का सुरमा बना …

और कब वो सुरमा मिक्सर में पिसती दवाईयों के संग घोटे में घुट गया"…

 

"ये सब तो खैर आपके समझाने से समझ आ गया लेकिन ये पुलिस वाले बाबा जी के पीछे क्यों पड़े हुए थे?"….

 

"वैसे तो हर महीने…बिना कहे ही पुलिस वालों को और टैक्स वालों को उनकी मंथली पहुँच जाती है लेकिन…

इस बार मामला कुछ ज़्यादा ही पेचीदा हो गया था"…

 

"ओह!…क्या हुआ था?"…

 

"अभी दो महीने पहले ही एक पागल से आदमी ने  पुलिस में झूठी शिकायत कर दी कि बाबा जी ने उसकी बीवी और जवान बेटी को

बहला-फुसला के अपनी सेवादारी में….अपनी तिमारदारी में लगा लिया है"…

 

"अरे!..उसकी बीवी या फिर उसकी बेटी दूध पीती बच्ची है जो बहला लिया…फुसला लिया?"

 

"वोही तो"…

"अब अपनी मर्ज़ी से कोई बाबा जी की शरण में आना चाहे तो क्या बाबा जी उसे दुत्कार दें… भगा दें?"…

"उसकी पागल की देखादेखी एक-दो और ने भी सीधे-सीधे बाबा जी पे ही अपनी बहन…अपनी बहू को अगवा करने का आरोप जड़ दिया"

 

"फिर?"…

 

"फिर क्या?…कोई और आम इनसान  होता तो गुस्से से बौखला उठता…बदला लेने की नीयत से सोचता लेकिन….

बाबा जी महान हैँ…बाबा जी देवता हैँ"…

 

"जी!..ये तो है"…

 

"चुपचाप मौन धारण कर  बिना किसी को बताए समाधि में लीन हो गए"….

 

"ओह"…

 

"बाद में मामला ठण्डा होने पर ही समाधि से बाहर निकले"…

"सहनशक्ति देखो बाबा जी की….विनम्रता देखो बाबा जी की

इतना ज़लील..इतना अपमानित…इतना बेइज़्ज़त होने के बावजूद भी उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा"…

"बस!…सबसे शांति बनाए रखने की अपील करते रहे"…

 

"जी"…

 

"और जब बचाव का कोई रास्ता नहीं दिखा तो अपने वकीलों..अपने शुभचिंतकों से सलाह मशवरा करने के बाद…

कोई चारा ना देख…पुलिस वालों से सैटिंग कर ली और उन्होंने ने जो जो माँगा…चुपचाप बिना किसी ना नुकुर के दे दिया"..

 

"बिलकुल ठीक किया…कौन कुत्तों को मुँह लगाता फिरे?"..

"बदले में पुलिस वालों ने शहर में अमन और शांति बनाए रखने की गर्ज़ से दोनों पक्षों  में समझौता करा दिया"…

"जब शिकायतकर्ताओं ने आपसी रज़ामंदी और म्यूचुअल अण्डरस्टैडिंग के चलते अपनी सभी शिकायतें वापिस ले ली तो बाबा जी के

आश्रम ने भी उन पर थोपे गए सभी केस..सभी मुकदमे बिना किसी शर्त वापिस ले लिए"..

"खैर!…ये तो हो रही थी बाबा जी की दरियादिली की बात"…

"आप शायद कोई राज़ की बात बताने वाले थे?"…

"राज़ की बात?"…

 

"हाँ!…याद आया…

मैँ तो बस इतना ही कहना चाहता था कि उन्होंने याने के लौटाचन्द जी ने अभी तक मेरी लंगोटी वापिस नहीं की है"…

 

"हा…हा…हा"…

"वैरी फन्नी"…

"आप तो बहुत हँसाते हो यार"…

 

"क्या करू?..ऊपरवाले ने बनाया ही कुछ ऐसा है"

 

"ये ऊपरवाला!…कहीं आपसे ऊपरवाली मंज़िल पे तो नहीं रहता?"…

 

"ही…ही….ही"…

"यू ऑर आल सो वैरी फन्नी"…

 

"स्वामी जी!..एक जिज्ञासा थी"…

 

"पूछो वत्स"…

 

"ये जो स्वामी जी के शिविर वगैरा लगते रहते हैँ …पूरे देश में"…

 

"जी"…

 

"इन्हें आर्गेनाईज़ करने वाले को भी कोई फायदा होता है"…

 

"फायदा?"…

"अरे!…उसके अगले-पिछले सब पाप मुक्त हो जाते हैँ…आज़ाद हो जाते हैँ"…

"मन शांत और निर्मल रहने लगता है"…

 

"ये बात तो ठीक है आपकी लेकिन मेरा मतलब था कि इतने सब इंतज़ाम करने में वक्त और पैसा सब लगता है"…

 

"वत्स!…हमारे बाबा जी का जो एक बार सतसंग या योग शिविर रखवा लेता है…..वो सारे खर्चे…सारी लागत निकालने के बाद आराम

से अपनी तथा अपने परिवार की छ से आठ महीने तक की रोटी निकाल लेता है"…

"सिर्फ रोटी?"…

"और नहीं तो क्या लड्डू=पेड़े?"…

"एक्चुअली टू बी फ्रैंक!…बचता तो बहुत ज़्यादा ही है लेकिन हमें  ऐसा कहना पड़ता है…..

नहीं तो कभी-कभार कम टिकटें बिकने पर आर्गेनाईज़र लोगों के ऊँची परवान चढे सपने धाराशाई हो जाते हैँ ना"…

और हम ठहरे ईश्वर के प्रकोप से डरने वाले बन्दे…

इसलिए अपने भगतों को दुखी नहीं देख सकते…निराश नहीं देख सकते" ..

"वैसे आजकल बाबा जी का रेट क्या चल रहा है"…

"फॉर यूअर काईंड इंफार्मेशन बाबा जी बिकाऊ नहीं हैँ"…

"मेरा मतलब था कि वो अपने विज़िट के चार्जेज़ कितने लेते हैँ?"…

"सात दिनों के शिविर के पचास लाख"..

 

"लेकिन मेरी जानकारी के हिसाब से तो पाँच साल पहले तो बाबा जी का रॆट तीस लाख रुपए था"

"यू नो!…पाँच साल में मँहगाई कितनी बढ गई है?"…

"अगर बैंक में भी रुपए डालो तो लगभग दुगने हो जाते हैँ"..

"इस हिसाब से देखा जाए तो बाबा जी ने सबका ध्यान रखते हुए तीस के पचास किए हैँ…साठ नहीं"…

 

खैर!…बातें तो बहुत हो गई…अब क्यों ना हम काम की बात करते हुए असल मुद्दे पे आएँ?"…

 

"जी बिलकुल!…मुझे भी इसी का इंतज़ार था"..

 

"तो फिर आप बताएँ!…क्या कहना चाहते थे आप?"…

 

"एक्चुअली मुझे फाल्तू बात करने की आदत नहीं है …

इसलिए मैँ टू दा प्बाईट बात करता हूँ कि इस बार उनके शिविर का ठेका मुझे मिलना चाहिए"…

"आप अपना बता दें कि आपको कितना चाहिए?"…

"लेकिन इस बार की डील तो शायद मेहरा ग्रुप वालों से फायनल होने जा रही है"…

 

"सब आपके हाथ में है…आप जिसे चाहेंगे…वही नोट कूटेगा"

 

"बात तो आपकी ठीक है लेकिन वो गैडगिल का बच्चा…

 

"अजी!…लेकिन वेकिन को मारिए गोली और टू बी फ्रैंक होके सीधे-सीधे बताईए कि आपका पेट कितने में भरेगा?

"मुझे वही लोग पसन्द आते हैँ जो फाल्तू बातों में टाईम वेस्ट नहीं करते और सीधे मुद्दे पे आते हैँ"…

"साफ-साफ शब्दों में कहूँ तो ज़्यादा लालच नहीं है मुझे"…

 

"फिर भी कितना?"…

 

"जो मन में आए…दे देना"….

 

"लेकिन बात पहले खुल जाए तो ज़्यादा बेहतर…बाद में दिक्कत पेश नहीं आती"…

"यू नो!…पैसा चीज़ ही ऐसी है कि बाद में बड़ों बड़ों के मन डोल जाते हैँ"

 

"मैँ तो यार!…तुच्छ सा..अदना सा प्राणी हूँ"…

"ज़्यादा ऊँची उड़ान उड़ने के बजाय ज़मीन पे चलना पसन्द करता हूँ मैँ"…

"बस!…आटे में नमक बराबर दे देना"…

 

"आप साफ-साफ कहें ना …कितना?"…

 

"ठीक है!…बाबा जी का तो आपको पता ही है …पचास लाख उनके और उसका दस परसैंट…याने के पाँच लाख मेरा"…

"टोटल हो गया पचपन लाख"…

 

"लेकिन मुझे पता चला है कि मेहरा ग्रुप वाले तो आपसे काफी कम में डील फाईनल करने जा रहे थे"…

 

"आपकी खबर सौ परसैंट सही है…सच्ची है लेकिन उनके मुँह से निवाला छीनने में यू नो…

"मुझे भी कोई ना कोई जवाब दे उन्हें टालना पड़ेगा"..

‘साथ ही ऊपर से नीचे तक काफी उठा-पटक करने की ज़रूरत पड़ेगी"…

"कईयों के मुँह बन्द करने पड़ेंगे"

 

"जी!…वो लौटाचन्द जी ने कहा था किसी और से बात करने के बजाय सीधा ‘सैटिंगानन्द’ जी से ही बात करना"

इसलिए मैँने सीधे-सीधे आपको कांटैक्ट किया वर्ना वो गैडगिल तो बाबा जी से भी डिस्काउंट दिलाने की बात कह रहा था"

 

"उस स्साले!…गैडगिल की तो मैँ…

"कोई भरोसा नहीं उसका…कई पार्टियों से एडवांस ले भी मुकर चुका है"..

"आप चाहें तो खुद पता कर लें"…

"मैँ तो कहता हूँ कि ऐसे काम से क्या फायदा?…बाद में उसके चक्कर काटते रहोगे"…

"वैसे एक बात टू बी फ्रैंक हो के कहूँ?….

 

"जी!…ज़रूर"…

 

‘खाना उसने भी है और खाना मैँने भी है लेकिन जहाँ वो आजकल मोटा होने के लिए ज़्यादा फैट्स…ज़्यादा प्रोटींन वगैरा ले रहा है…

वहीं मैँने आजकल पतला होने की ठानी है "…

इसलिए मार्निंग वॉक के अलावा  ‘रामदेव’ जी का योगा शुरू कर दिया है"….

"कमाल के चीज़ है ये योगा भी"…

"यू नो!… पिछले बीस दिनों में…मैँ पंद्र्ह किलो वेट लूज़ कर चुका हूँ"…

 

"इसलिए आप फिट-फिट भी लग रहे हैँ"…

 

"ट्रिंग…ट्रिंग…."…

 

"हैलो…कौन?"…

"लौटाचन्द जी….

"नमस्कार"…

"हाँ जी!…उसी के बारे में बात कर रहे थे"…

"बस!…फाईनल ही समझिए"…

"ठीक है!…एडवांस दिए देता हूँ"…

"कितना?"…

"पाँच लाख से कम नहीं?"…

"लेकिन अभी तो मेरे पास यही कोई तीन…सवा तीन के आस-पास पड़ा होगा"…

"ठीक है!…आप दो लाख लेते आएँ"…

"आज ही साईनिंग एमाउंट दे के डील फाईनल कर लेते हैँ"…

"नेक काम में देरी कैसे?"…

"आधे घंटे में पहुँच जाएँगे?"…

"ठीक है!..मैँ वेट कर रहा हूँ"…

ओ.के…"…

"बाय-बाय"फोन रख दिया जाता है…

 

"अपने लौटाचन्द जी थे"…

"बस..अभी आते ही होंगे"..

 

"तो क्या लौटाचन्द जी भी आपके साथ?"…

 

"जी!…पहली बार आर्गेनाईज़ करने की सोची है ना"…

"इसलिए अभी पूरा कॉंफीडैंस नहीं है"…

 

"चिंता ना करो..राम जी सब भली करेंगे"…

"मैँ तो कहता हूँ कि ऐसा चस्का लगेगा कि सारे काम..सारे धन्धे भूल जाओगे"…

"लाखों के वारे-न्यारे होंगे..लाखों के"…

 

"एक मिनट!..आप बैठें ..मैँ पेमैंट ले आता हूँ"…

"ठीक है…गिनने में भी तो वक्त लगेगा..एण्ड यू नो…..

 

"टाईम वेस्ट इज़ मनी वेस्ट"…

 

"हा हा हा हा..वैरी क्लैवर"…

 

"लीजिए…स्वामी जी!…गिन लीजिए..पूरे साढे तीन लाख है"…
बाकि के ढेढ लाख भी बस आते ही होंगे"…
और बाबा जी के पेमैंट तो डाईरैक्ट उनके आश्रम में पहुँचानी है ना?"…

"नहीं आजकल सख्ती चल रही है…

उड़ती-उड़ती खबर पता चली है कि  कुछ ‘सी,बी.आई’ वाले सेवादारो के भेष में आश्रम के चप्पे-चप्पे पे नज़र रखे बैठे हैँ"…

 

"तो फिर?"…

 

"चिंता की कोई बात नहीं है…हम आपको एक कोड वर्ड बताएँगे"…

 

"जी"..

"जो कोई भी वो कोड वर्ड आपको बताए..आप रकम उसके हवाले कर देना"…

"वो उसे हवाला के जरिए बाहरले मुल्कों में बाबा जी के बेनामी खातो में जमा करवा देगा"..

"ठीक है जी…जैसा आप उचित समझें"…

 

"ठक…ठक..ठक.."

"लगता है कि लौटाचन्द जी आ गए"…

 

"जी!..यही लगता है"…

 

"एक मिनट!…मैँ दरवाज़ा खोल के आता हूँ…आप आराम से गिनिए"…

 

"ठीक है"…

 

"आईए!…आईए…‘एस.एच.ओ’ साहब और….

गिरफ्तार कर लीजिए इस ढोंगी और पाखँडी को"…

 

"धोखा"….

 

"सारे सबूत!…आवाज़ और विडियो की शक्ल में रिकार्ड कर लिए हैँ मैँने इसके खिलाफ"…

"और आपके दिए इन नोटों पर भी इसकी उँगलियों  के निशान छप ही चुके होंगे"

 

"कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी पुलिस मेरा"…

"दो दिन भी अन्दर नहीं रख पाएगी तेरी ये पुलिस मुझे"..

"जानता नहीं!…पहचानता नहीं कि "बाबा जी महान है"…उनकी की पहुँच कहाँ तक है"…

"किंता ना कर…तेरे चहेते बाबा जी के आश्रम में भी रेड पड़ चुकी है"…

 

"क्या?"…

 

"इधर तेरा विडियो बन रहा था तो उधर उनका भी बन रहा था"…

 

"क्या?"…

"लौटाचन्द जी वहीं है और उन्हीं का फोन था उस वक्त कि….

काम हो गया है…हथोड़ा मार दो"

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

Delhi(India)

http://hansteraho.blogspot.com

+919810821361

+919896397625

>"काम हो गया है…मार दो हथोड़ा"

>

 

"काम हो गया है…हथोड़ा मार दो"

 

***राजीव तनेजा***

 

With_Sadhu_and_Tero_at_Dharamsala_Ashram__Feb__2005

 

"हैलो’

"इज़ इट…+91 804325678 ?…

 

"जी"…

 

"सैटिंगानन्द महराज जी है?"

 

"हाँ जी!…बोल रहा हूँ"..

"आप कौन?"

 

"जी मैँ!…राजीव बोल रहा हूँ"

 

"कहाँ से?

 

"मुँह से"…

 

"वहाँ से तो सभी बोलते हैँ"…

"क्या आप कहीं और से भी बोलने में महारथ रखते हैँ?"

 

"जी?"…

"जी नहीं!…मेरा मतलब ये नहीं था"…

 

"फिर क्या तात्पर्य था आपकी बात का?"…

 

"जी!…मैँ कहना चाहता था कि मैँ शालीमार बाग से बोल रहा हूँ"

 

"ठीक है!…लेकिन पहले आप ये बताएँ कि आपको मेरा ये पर्सनल नम्बर कहाँ से मिला?..और…

उसके बाद फोन करने का मकसद बताएँ""

 

"जी!…मुझे श्री लौटाचन्द जी ने वाराणसी से लौटते समय आपका नम्बर दिया था"

 

"अच्छा!…अच्छा"…

 

"जी!…मुझे पता चला था कि इस बार दिल्ली में शिविर का आयोजन होना है"…

 

"आपने सही सुना है"…

 

"तो मैँ चाहता था कि इस बार का ठेका…

 

"देखिए!…आजकल  हमारे फोनों के टेप-टाप होने का खतरा बना रहता है इसलिए अभी ज़्यादा बात करना उचित नहीं"…

 

"ऐसा करते हैँ…मैँ दो दिन बाद मैँ दिल्ली आ रहा हूँ…आप अपना पता और फोन नम्बर मुझे मेल कर दें"…

मैँ आपके घर पे ही आ जाता हूँ और फिर आराम से बैठ के सारी बातें…सारे मैटर विस्तार से डिस्कस कर लेंगे"…

 

"ठीक है!…जैसा आप उचित समझें"…

 

आप मेरी ई-मेल आई.डी नोट कर लें….

 

"जी!…बताएँ"…

 

आई.डी है व्यवस्थानन्द@नकदनरायण.कॉम

 

"ठीक है!…मैँ अभी मेल करता हूँ"…

 

"ओ.के…आपका दिन मँगलमय हो"

 

"आपका भी"

 

(दो दिन बाद)

 

ट्रिंग…ट्रिंग…ट्रिंग….

 

हैलो …राजीव जी?…

 

"जी!…बोल रहा हूँ"…

 

"मैँ सैटिंगानन्द!…..बाहर खड़ा कब से कॉलबैल बजा रहा हूँ…लेकिन कोई दरवाज़ा ही नहीं खोल रहा है।"..

 

"ओह!…अच्छा….अभी खोल रहा हूँ।"…

"आईए…आईए"..

‘यहाँ…यहाँ सोफे पे विराजिए"..

"वो दरअसल क्या है कि आजकल हमारी कॉलबैल खराब  है।"…

"और ये पड़ोसियों के बच्चे ना!…पूरी की पूरी..आफत हैँ आफत"…

"एक से एक नौटंकीबाज …एक से एक ड्रामेबाज भरा पड़ा है हमारे मोहल्ले में"…

 

"बच्चे हैँ…बच्चों का काम है शरारत करना"…

 

"ये बच्चे तो ऐसे हैँ कि बड़े-बड़ों के कान कतर डालें"…

"वक्त-बेवक्त तंग करना तो कोई इनसे सीखे"…

"ना दिन देखते हैँ ना रात….

फट्ट से घंटी बजाते हैँ  और झट से फुर्र हो जाते हैँ"

"इसलिए इस बार जो घंटी खराब हुई तो ठीक करवाना उचित नहीं समझा"…

 

"बिलकुल सही किया आपने"…

"आजकल तो वैसे भी बच्चे-बच्चे के पास मोबाईल है"…

"जो आएगा…अपने आप कॉल कर लेगा"…

"क्यों?…है कि नहीं"

"खैर!…अब सुनाएँ…..कैसे हैँ आप?"…

 

"मैँ ठीकठाक!…आप सुनाएँ"…

"सफर में कोई दिक्कत..कोई परेशानी तो नहीं?"…

 

"नहीं!…ऐसी कोई खास दिक्कत या परेशानी नहीं लेकिन बस थकावट तो हो ही जाती है लम्बे सफर में…

सो!..बदन कुछ-कुछ टूट-टूट सा रहा है"…

"आपसे मिलने को मन बहुत उतावला था"…

इसलिए इधर स्टेशन पे गाड़ी रुकी और उधर मैँने ऑटो पकड़ा और सीधा आपके यहाँ पहुँच गया"….

 

"अच्छा किया"…

 

"पहले सोचा कि किसी होटल-वोटल में कोई आराम दायक कमरा ले के घंटे दो घंटे आराम करता हूँ…

उसके बाद आपसे मिलने चला आऊँगा"..

"लेकिन यू नो!…टाईम वेस्ट इज़ मनी वेस्ट"

"और ऊपर से टू बी फ्रैंक!..मुझे पराए देस में होटल वगैरा का पानी रास नहीं आता है और…

 

"तो किसी धर्मशाला या सराय….

 

"नहीं जी!..धर्मशाला या सराय में रहने से तो अच्छा है कि बन्दा प्लैटफार्म पर ही लेट-लाट के कमर सीधी कर घड़ी दो घड़ी सुस्ता ले"

"दरअसल!..इन सस्ते होटलों के भिचभिचे माहौल से बड़ी कोफ्त होती है मुझे"…

"एक तो पैसे के पैसे खर्चो करो…ऊपर से दूसरों के इस्तेमालशुदा बिस्तर पे…

छी…

पता नहीं कैसे-कैसे लोग वहाँ आ के ठहरते होंगे?..और ना जाने क्या-क्या पुट्ठे-सीधे काम करते होंगे"…

"मैँ तो कहता हूँ आग लगी हुई है आजकल की नौजवान पीढी को.."…

 

"स्वामी जी!…ज़माना बदल गया है…ट्रैंड बदल गए हैँ"..

"जीने के सारे मायने….सारे कायदे बदल गए हैँ"…

"देश प्रगति की राह पर बाकी सभी उन्नत देशों के साथ कदम से कदम…कँधे से कँधा मिला के चल रहा है।"

"और वैसे भी ग्लोबलाईज़ेशन का ज़माना है…इसलिए!..बाहरले देशों का असर तो आएगा ही"…

"राम…राम!…आग लगे ऐसे ग्लोबलाईज़ेशन को…ऐसी उन्नति को…ऐसी प्रगति को"…

"ऐसी भी क्या आगे बढने की…ऊँचा उठने की अँधी हवस….जो देश को…देश के आवाम को गर्त में ले जाए…पतन की राह पे ले जाए?"

"खैर!..छोड़ो इस सब को…जिनका काम है…वही गौर करेंगे इस सब पर"

"अपना क्या है?..हम तो ठहरे मलंग मस्तमौले फकीर"…

"जहाँ किस्मत ने धक्का देना है…वहीं झुल्ली-बिस्तरा उठा के चल देना है"…

"बस!..यही सब सोच कि किसी होटल-वोटल में डेरा जमा…धूनी रमाना अपने बस का नहीं"…

"सीधा!…आपके यहाँ चला आया कि दो-चार…दस दिन जितना भी मन करेगा….राजीव जी के साथ उन्हीं के घर पे

बिता लूँगा"

"आखिर!..हमारे लौटाचन्द जी के परम मित्र जो ठहरे"

 

"हे हे हे हे….कोई बात नहीं जी"…

"ये भी आप ही का घर है"…

"जब तक जी में आए ..तब तक अलख जगा धूनी रमाएँ"…

 

"ठीक है!…फिर कब करवा रहे हो कागज़ात मेरे नाम?..

 

"कागज़ात?"…

 

"अभी आप ही ने कहा ना"…

 

"क्या?"…

 

"यही कि ..ये भी आप ही का घर है"..

 

"हे हे हे हे"…

"स्वामी जी!…आपके सैंस ऑफ ह्यूमर का भी कोई जवाब नहीं"..

‘खैर!…ये सब बातें तो चलती ही रहेंगी…पहले आप नहा-धो के फ्रैश हो लें…तब तक मैँ चाय-वाय का प्रबन्ध करवाता हूँ"…

 

"नहीं वत्स!…चाय की इच्छा नहीं है…आप बेकार की तकलीफ रहने दें"…

 

"महराज जी!…इसमें तकलीफ कैसी?"..

 

"दरअसल!…मैँ चाय पीता ही नहीं हूँ"…

 

"चाय नहीं पीते हैँ?"…

"ओ.के…जैसी आपकी मर्ज़ी"…

"लेकिन अपनी कहूँ तो…सुबह आँख तब खुलती है जब चाय की प्याली बिस्कुट या रस्क के साथ सामने मेज़ पे सज चुकी होती है और…

दिन भर तो किसी ना किसी का आया-गया लगा ही रहता है"…

"सो!… पूरे दिन में यही कोई आठ से दस कप चाय आराम से हो जाती है"…

 

""आठ से दस कप?"…

"वत्स!…क्या कर रहे हो?"..

"सेहत के साथ यूँ खिलवाड़ अच्छा नहीं"…

"जानते नहीं कि सेहत अच्छी हो..तो सब अच्छा लगता है"…

"वक्त-बेवक्त किसी और ने नहीं बल्कि तुम्हारे शरीर ने ही तुम्हारा साथ देना है"…

इसलिए…इसे संभाल कर रखो…स्वस्थ रखो"…

"मुझे देखो!…चाय पीना तो दूर की बात है …मैँने आजतक कभी इसकी खाली प्याली को भी सूँघ के नहीं देखा"…

 

"ठीक है स्वामी जी!…कोशिश करूँगा कि चाय से दूर रहूँ"…

 

"कोशिश नहीं…वचन दो मुझे"..

"तुम्हें कसम है तुम्हारे आने वाले कल की….खेतों में चलते हल की…

जो तुमने आज के बाद कभी चाय को छुआ भी तो"…

 

"ठीक है स्वामी जी!….आपका मान तो रखना ही पड़ेगा"…

"मैँ आपके लिए दूध मँगवाता हूँ?"…

"ठण्डा या गर्म?"….

"कैसा लेना पसन्द करेंगे आप?"…

 

"दूध?"…

"वो तो मैँ दिन में सिर्फ एक बार….

सुबह चार बजे की पूजा के बाद…

दो चम्मच शुद्ध देसी घी या फिर…शहद के साथ लेता हूँ"…

"ये सब कष्ट आप रहने दें और एक काम करें"…

 

"जी"…

 

"वहाँ!….वहाँ उधर मेरा कमंडल रखा है…उसे मुझे ला के दे दें"…

 

"कमंडल?…अभी क्या करेंगे उसका?"..

 

"दरअसल!..क्या है कि उसमें एक ‘अरिस्टोक्रैट’  का अद्धा रखा है"…

"ट्रेन में ऐसे ही किसी श्रधालु का हाथ देख रहा था…तो उसी ने …ऐज़ ए गिफ्ट प्रैज़ैंट कर दिया"…

 

"ओह!…

 

"आप उसे!…हाँ उसे ही मुझे पकड़ा दें और हो सके तो कुछ नमकीन वगैरा…स्नैक्स वगैरा भिजवा दें"…

"जब तक मैँ इसे गटकता हूँ तब तक आप खाने का आर्डर भी कर ही दें"…

 

"सोडा भी लेता आऊँ?"…

 

"नहीं!…यू नो…सोडे से मुझे गैस बनती है…और बार-बार गैस छोड़ना बड़ा अजीब सा लगता है…ऑकवर्ड सा लगता है"..

 

"गैस?"…

 

"पता नहीं इन कोला कम्पनियाँ को इस अच्छे भले…साफ-सुथरे पानी में गैस मिला के क्या मिलता है?"…

"ना जाने  क्यों मिलावट कर वो इसे गन्दा कर देती हैँ…अपवित्र  कर देती हैँ?"मेरी बात सुने बिना वो बोलते चले गए

 

"जी"…

 

"आप एक काम करें…

उधर!…हाँ उधर मेरे झोले में शुद्ध गंगाजल पड़ा है ..’

हाँ!…उसी…उसी ‘बैगपाईपर’ की बोतल में ही रखा है..

उसे ही दे दें…काम चल जाएगा"वो थैले की तरफ इशारा करते हुए बोले…

 

"ठीक है!…जैसी आपकी मर्ज़ी"…

"आप बताएँ कि सफर कैसे कटा?"…

 

"बस!…सफर की तो आप पूछें मत…..

"एक तो दुनिया भर का भीड़ भड़क्का..ऊपर से लम्बा सफर

धकम्मपेल में हुई थकावट के कारण सारा बदन चूर-चूर हो रहा था और ऊपर से भूख भी लगी हुई थी"…

सो!.. मैने सोचा कि स्टेशन पे उतरने के बाद किसी अच्छे से रैस्टोरैंट में जा कर शाही पनीर के साथ ‘चूर-चूर नॉन’ खाए जाएँ…

"यू नो!…शाही पनीर और चूर-चूर नॉन का मज़ा ही कुछ और है"

 

"जी!…ये तो मेरे भी फेवरेट हैँ"…

 

"फिर मैँने सोचा कि बेकार में सौ दो सौ फूंक के क्या फायदा?"…

"लंच टाईम भी होने ही वाला है और…राजीव जी भी तो भोजन करेंगे ही"…

"सो!…क्यों ना उन्हीं के घर का प्रसाद चख पेट-पूजा कर ली जाए"

उन्होंने मेरे लिए भी तो बनवाया ही होगा"

 

"हे हे हे हे….क्यों नहीं..क्यों नहीं"

"बिलकुल सही किया आपने"…

"हाँ!…तो अब काम की बात करें?"…

 

"नहीं!…जब तक मैँ ये अद्धा गटकता हूँ…तब तक आप खाना लगवा दें क्योंके..

पहले पेट पूजा…बाद में काम दूजा"…

 

"जी!…जैसा आप उचित समझें"…

 

"भय्यी!…और कोई चाहे कुछ भी कहता रहे लेकिन अपने तो पेट में तो जब तक दो जून अन्न का नहीं पहुँच जाता….

तब तक कुछ करने का मन ही नहीं करता"…

"वो कहते हैँ ना कि भूखे पेट तो भजन भी ना सुहाए"

 

(खाना खाने के बाद)

 

"मज़ा आ गया…अति स्वादिष्ट….अति स्वादिष्ट"सैटिंगानन्द जी लम्बी डकार मारते हुए बोले

"हाँ!..अब बताएँ कि आप उन्हें कैसे जानते हैँ?"

 

"किन्हें?"…

 

"अरे!…अपने लौटाचन्द जी को और किन्हे?"…

 

"ओह!…अच्छा"…

"जी!…दरअसल वो हमारे और हम उनके लंग़ोटिया यार हैँ"…

"अभी कुछ हफ्ते पहले ही मुलाकात हुई थी उनसे"

 

"अभी आप कह रहे थे कि वो आपके लँगोटिया यार हैँ"…

 

"जी"…

 
"फिर आप कहने लगे कि अभी कुछ ही हफ्ते पहले मुलाकात हुई"

 

"जी"…

 
"लेकिन लँगोटिया यार तो उसे कहते हैँ जिसके साथ बचपन की यारी हो…दोस्ती हो"…

 
"ओह!…सॉरी….आई.एम वैरी सॉरी"…

दरअसल!…लंगोटिया यार से मेरा ये तात्पर्य नहीं था"

 

"फिर क्या मतलब था आपका?"…

 
"जी!…दरअसल बात ये है कि वो मुझे पहली बार हरिद्वार में गंगा मैय्या के तट पे नंगे नहाते हुए मिले थे"

 

"नंगे?"…

 
‘अब!…वहाँ ‘हर की पौढी’ में तेज़ बहाव के चलते उनकी लंगोटी जो बह गई थी"…

"तो नंगे ही नहाएंगे ना?"…

 

"ओह!…अच्छा"…

"तो क्या घर से एक ही लंगोटी ले के निकले थे?"

 

"यही सब डाउट तो मुझे भी हुआ था और मैँने इस बाबत पूछा भी था लेकिन वो कुछ बताने को राज़ी ही नहीं थे"…

"मैँने उन्हें अपनी ताज़ी-ताज़ी हुई दोस्ती का वास्ता भी दिया लेकिन वो नहीं माने"…

"आखिर में जब मैँने तंग आ कर अपना लँगोट वापिस लेने की धमकी दी तो थोड़ी नानुकर के बाद सब बताने को राज़ी हुए"..

 

"अच्छा…फिर?"

 

"उन्होंने बताया कि घर से तो वो तीन ठौ लंगोटी ले के चले थे"…

"एक खुद पहने थे और दो सूटकेस में नौकर के हाथों पैक करवा दी थी"…

 

"फिर तो उनके पास एक पहनी हुई और दो पैक की हुई याने के कुल जमा तीन लँगोटियाँ होनी चाहिए थी?"…

 

"जी!..लेकिन…उनमें से एक को तो उनके साले साहब बिना पूछे ही उठा के चलते बने"…

"बाद में जब फोन आया तो पता चला कि वो तो ‘मँसूरी’ पहुँच गए हैँ ‘कैम्पटी फॉल’ में नहाने के लिए"…

 

"हाँ!…फिर तो लँगोटी ले जा के उसने ठीक ही किया क्योंकि सख्ती के चलते मँसूरी का प्रशासन वहाँ नंगे नहाने की अनुमति बिलकुल नहीं देता है"..

"लेकिन मेरे ख्याल से तो लौटाचन्द जी को साफ-साफ कह देना चाहिए था अपने साले साहब को कि वो अपनी लँगोटी खुद खरीदें"…

 

"किस मुँह से मना करते लौटाचन्द जी उसे?"…

"वो खुद कई बार उसी की लँगोटी माँग के ले जा चुके थे…कभी गोवा भ्रमण के नाम पर तो कभी काँवड़ यात्रा के नाम पर"…

"और ऊपर से ये जीजा-साले का रिश्ता ही ऐसा है कोई कोई इनकार करे तो कैसे?"…

"वो कहते हैँ ना कि सारी खुदाई एक तरफ और…जोरू का भाई एक तरफ"…

 

"जी"

 

"इसलिए मना नहीं कर पाए उसे"…

"आखिर लाडली जोरू का इकलौता भाई जो ठहरा"…

 

"लेकिन हिसाब से देखा जाए तो एक लँगोटी तो फिर भी बची रहनी चाहिए थी उनके पास"…

 

"बची रहनी चाहिए थी?"…

"वो कैसे?"..

"हाँ!..याद आया….आप तो जानते ही हैँ लौटाचन्द जी की पी के कहीं भी इधर-उधर लुड़क जाने की आदत को"…

 

"जी"…

 

"बस!…सोचा कि हरिद्वार तो ड्राई सिटी है…वहाँ तो कुछ मिलेगा नहीं"…

"सो!…दिल्ली से ही इंग्लिश-देसी सबका पूरा  इंतज़ाम कर के चले थे कि सफर में कोई दिक्कत ना हो"…

 

"ठीक किया उन्होंने…रास्ते में अगर मिल भी जाती तो बहुत मँहगी पड़ती"…

 

"उसके बाद तो बस सारे रस्ते…बस पीते गए….बस पीते गए"…

"नतीजन!…ऐसी चढी कि हरिद्वार पहुँचने के बाद भी …लाख उतारे ना उतरी"…

 

"ओह"…

 

"रात भर पता नहीं कहाँ लुड़कते-पुड़कते रहे"…

"अगले दिन म्यूनिसिपल वालों को गंदी नाली में बेहोश पड़े मिले थे"….

"पूरा बदन कीचड़ से सना हुआ…बदबू के मारे बुरा हाल"…

 

"ओह:…

 

"बदन से धोती लँगोट सब गायब"…

 

"धोती..लंगोट सब गायब?"…

"कोई चोर-चार ले गया होगा"…

 

"अजी कहाँ?…हरिद्वार के चोर इतने गए गुज़रे भी नहीं कि किसी की इज़्ज़त…किसी की आबरू के साथ यूँ खिलवाड़ करते फिरें"…

 

"तो फिर?"…

 

"शायद!…रात भर चूहे  डिनर में इन्हीं के कपड़े चबा गए होंगे"

"और बस तभी से हमारी उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई"…

 

"ओ.के…ओ.के"

 

"वैसे…एक राज़ की बात बताऊँ?"

"उनसे कहिएगा नहीं"…

 

"जी"…

 

"परम मित्र हैँ…बुरा मान जाएँगे"…

 

"जी!..आप चिंता ना करें"…

"बेशक सारी दुनिया इधर की उधर हो जाए लेकिन मेरी तरफ से इस बाबत आपको कोई शिकायत नहीं मिलेगी"…

"आप बेफिक्र हो के कोई भी राज़ की बात मुझ से कह सकते हैँ"…

 

"कहीं उनको पता चल गया तो?"…

 

" यूँ समझिए कि जहाँ कोई कॉंफीडैंशल बात इन कानों में पड़ी…वहीं इन कानों को शीला दीक्षित की सरकारी  ‘सील’ लग गई"

"और साथ ही लगे हाथ..ये बड़ा….मोटा सा …फुल साईज़ का ताला लग गया इस कलमुँही ज़ुबान पे"

"जहाँ बारह-बारह सी.बी.आई वाले भी लाख कोशिश के बावजूद कुछ उगलवा नहीं पाए…वहाँ ये लौटानन्द चीज़ ही क्या है?"…

 

"सी..बी.आई. वाले?"…

 

"अरे!…बस ऐसे ही!…

उल्लू के चर्खे…स्साले!..थर्ड डिग्री अपना के बाबा जी के बारे अंट-संट निकलवाना चाहते थे मेरी ज़ुबान से लेकिन मजाल है जो मैँने उफ तक की हो या ….एक शब्द भी मुँह से निकाला हो"…"…

"ये सब तो खैर!..आए साल चलता रहता है…

"कभी इनकम टैक्स और सेल्स टैक्स वालों के छापे…तो कभी  पुलिस और ‘सी.बी.आई’ की रेड"…

 

"इनकम टैक्स और सेल्स टैक्स वालों का मामला तो अखबार और मीडिया में भी खूब उछला था कि इनकी फर्म हर साल लाखों करोड़ रुपयों की आयुर्वेदिक दवायियाँ  बेचती है और एक्सपोर्ट भी करती है लेकिन उसके मुकाबले टैक्स आधा भी नहीं भरा जाता"…

 

"आधा?…

अरे!…हमारा बस चले तो आधा  क्या हम अधूरा भी ना भरें"…

 

"लेकिन स्वामी जी!…टैक्स तो भरना ही चाहिए आपको"…

देश के लिए …देश के लोगों के भले के लिए"…

 

"पहले अपना…फिर अपनों का…भला कर लें..

बाद में देश की..देश के लोगों की सोचेंगे"…

 

"एक आरोप और भी तो लगा था ना आप पर?"…

 

"कौन सा?"…

 

"यही कि आपकी दवाईयों में जानवरो की…

 

"ओह…अच्छा…वो वाला…

उसमें तो एक लाल झण्डे वालों की ताज़ी-ताज़ी बनी अभिनेत्री…

ऊप्स!…सॉरी …नेत्री ने इलज़ाम लगाया था कि…

हम अपनी दवाईयों में जानवरों की हड्डियाँ मिलाते….गो मूत्र मिलाते हैँ"..

"उस उल्लू की चरखी को कोई जा के ये बताए तो सही कि बिना हड्डियाँ मिलाए…

आयुर्वेदिक या यूनानी दवाईयों का निर्माण नहीं हो सकता है"…

"और रही गोमूत्र की बात!…तो उस जैसी लाभदायक चीज़…उस जैसा एंटीसैप्टिक तो पूरी दुनिया में और कोई नहीं"…

 

"हाँ!..मैँने भी उसए कई बार देखा था टीवी….रेडियो वगैरा में बड़बड़ाते हुए"…

 

अरे!..औरतज़ात थी इसलिए बाबा जी ने मेहर की और…बक्श दिया…

वर्ना हमारे सेवादार तो उनके  एक हलके से…महीन से इशारे का इंतज़ार कर रहे थे"…

पता भी नहीं चलना था कि कब उस अभिनेत्री…ऊप्स सॉरी नेत्री की हड्डियों का सुरमा बना …

और कब वो सुरमा मिक्सर में पिसती दवाईयों के संग घोटे में घुट गया"…

 

"ये सब तो खैर आपके समझाने से समझ आ गया लेकिन ये पुलिस वाले बाबा जी के पीछे क्यों पड़े हुए थे?"….

 

"वैसे तो हर महीने…बिना कहे ही पुलिस वालों को और टैक्स वालों को उनकी मंथली पहुँच जाती है लेकिन…

इस बार मामला कुछ ज़्यादा ही पेचीदा हो गया था"…

 

"ओह!…क्या हुआ था?"…

 

"अभी दो महीने पहले ही एक पागल से आदमी ने  पुलिस में झूठी शिकायत कर दी कि बाबा जी ने उसकी बीवी और जवान बेटी को

बहला-फुसला के अपनी सेवादारी में….अपनी तिमारदारी में लगा लिया है"…

 

"अरे!..उसकी बीवी या फिर उसकी बेटी दूध पीती बच्ची है जो बहला लिया…फुसला लिया?"

 

"वोही तो"…

"अब अपनी मर्ज़ी से कोई बाबा जी की शरण में आना चाहे तो क्या बाबा जी उसे दुत्कार दें… भगा दें?"…

"उसकी पागल की देखादेखी एक-दो और ने भी सीधे-सीधे बाबा जी पे ही अपनी बहन…अपनी बहू को अगवा करने का आरोप जड़ दिया"

 

"फिर?"…

 

"फिर क्या?…कोई और आम इनसान  होता तो गुस्से से बौखला उठता…बदला लेने की नीयत से सोचता लेकिन….

बाबा जी महान हैँ…बाबा जी देवता हैँ"…

 

"जी!..ये तो है"…

 

"चुपचाप मौन धारण कर  बिना किसी को बताए समाधि में लीन हो गए"….

 

"ओह"…

 

"बाद में मामला ठण्डा होने पर ही समाधि से बाहर निकले"…

"सहनशक्ति देखो बाबा जी की….विनम्रता देखो बाबा जी की

इतना ज़लील..इतना अपमानित…इतना बेइज़्ज़त होने के बावजूद भी उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा"…

"बस!…सबसे शांति बनाए रखने की अपील करते रहे"…

 

"जी"…

 

"और जब बचाव का कोई रास्ता नहीं दिखा तो अपने वकीलों..अपने शुभचिंतकों से सलाह मशवरा करने के बाद…

कोई चारा ना देख…पुलिस वालों से सैटिंग कर ली और उन्होंने ने जो जो माँगा…चुपचाप बिना किसी ना नुकुर के दे दिया"..

 

"बिलकुल ठीक किया…कौन कुत्तों को मुँह लगाता फिरे?"..

"बदले में पुलिस वालों ने शहर में अमन और शांति बनाए रखने की गर्ज़ से दोनों पक्षों  में समझौता करा दिया"…

"जब शिकायतकर्ताओं ने आपसी रज़ामंदी और म्यूचुअल अण्डरस्टैडिंग के चलते अपनी सभी शिकायतें वापिस ले ली तो बाबा जी के

आश्रम ने भी उन पर थोपे गए सभी केस..सभी मुकदमे बिना किसी शर्त वापिस ले लिए"..

"खैर!…ये तो हो रही थी बाबा जी की दरियादिली की बात"…

"आप शायद कोई राज़ की बात बताने वाले थे?"…

"राज़ की बात?"…

 

"हाँ!…याद आया…

मैँ तो बस इतना ही कहना चाहता था कि उन्होंने याने के लौटाचन्द जी ने अभी तक मेरी लंगोटी वापिस नहीं की है"…

 

"हा…हा…हा"…

"वैरी फन्नी"…

"आप तो बहुत हँसाते हो यार"…

 

"क्या करू?..ऊपरवाले ने बनाया ही कुछ ऐसा है"

 

"ये ऊपरवाला!…कहीं आपसे ऊपरवाली मंज़िल पे तो नहीं रहता?"…

 

"ही…ही….ही"…

"यू ऑर आल सो वैरी फन्नी"…

 

"स्वामी जी!..एक जिज्ञासा थी"…

 

"पूछो वत्स"…

 

"ये जो स्वामी जी के शिविर वगैरा लगते रहते हैँ …पूरे देश में"…

 

"जी"…

 

"इन्हें आर्गेनाईज़ करने वाले को भी कोई फायदा होता है"…

 

"फायदा?"…

"अरे!…उसके अगले-पिछले सब पाप मुक्त हो जाते हैँ…आज़ाद हो जाते हैँ"…

"मन शांत और निर्मल रहने लगता है"…

 

"ये बात तो ठीक है आपकी लेकिन मेरा मतलब था कि इतने सब इंतज़ाम करने में वक्त और पैसा सब लगता है"…

 

"वत्स!…हमारे बाबा जी का जो एक बार सतसंग या योग शिविर रखवा लेता है…..वो सारे खर्चे…सारी लागत निकालने के बाद आराम

से अपनी तथा अपने परिवार की छ से आठ महीने तक की रोटी निकाल लेता है"…

"सिर्फ रोटी?"…

"और नहीं तो क्या लड्डू=पेड़े?"…

"एक्चुअली टू बी फ्रैंक!…बचता तो बहुत ज़्यादा ही है लेकिन हमें  ऐसा कहना पड़ता है…..

नहीं तो कभी-कभार कम टिकटें बिकने पर आर्गेनाईज़र लोगों के ऊँची परवान चढे सपने धाराशाई हो जाते हैँ ना"…

और हम ठहरे ईश्वर के प्रकोप से डरने वाले बन्दे…

इसलिए अपने भगतों को दुखी नहीं देख सकते…निराश नहीं देख सकते" ..

"वैसे आजकल बाबा जी का रेट क्या चल रहा है"…

"फॉर यूअर काईंड इंफार्मेशन बाबा जी बिकाऊ नहीं हैँ"…

"मेरा मतलब था कि वो अपने विज़िट के चार्जेज़ कितने लेते हैँ?"…

"सात दिनों के शिविर के पचास लाख"..

 

"लेकिन मेरी जानकारी के हिसाब से तो पाँच साल पहले तो बाबा जी का रॆट तीस लाख रुपए था"

"यू नो!…पाँच साल में मँहगाई कितनी बढ गई है?"…

"अगर बैंक में भी रुपए डालो तो लगभग दुगने हो जाते हैँ"..

"इस हिसाब से देखा जाए तो बाबा जी ने सबका ध्यान रखते हुए तीस के पचास किए हैँ…साठ नहीं"…

 

खैर!…बातें तो बहुत हो गई…अब क्यों ना हम काम की बात करते हुए असल मुद्दे पे आएँ?"…

 

"जी बिलकुल!…मुझे भी इसी का इंतज़ार था"..

 

"तो फिर आप बताएँ!…क्या कहना चाहते थे आप?"…

 

"एक्चुअली मुझे फाल्तू बात करने की आदत नहीं है …

इसलिए मैँ टू दा प्बाईट बात करता हूँ कि इस बार उनके शिविर का ठेका मुझे मिलना चाहिए"…

"आप अपना बता दें कि आपको कितना चाहिए?"…

"लेकिन इस बार की डील तो शायद मेहरा ग्रुप वालों से फायनल होने जा रही है"…

 

"सब आपके हाथ में है…आप जिसे चाहेंगे…वही नोट कूटेगा"

 

"बात तो आपकी ठीक है लेकिन वो गैडगिल का बच्चा…

 

"अजी!…लेकिन वेकिन को मारिए गोली और टू बी फ्रैंक होके सीधे-सीधे बताईए कि आपका पेट कितने में भरेगा?

"मुझे वही लोग पसन्द आते हैँ जो फाल्तू बातों में टाईम वेस्ट नहीं करते और सीधे मुद्दे पे आते हैँ"…

"साफ-साफ शब्दों में कहूँ तो ज़्यादा लालच नहीं है मुझे"…

 

"फिर भी कितना?"…

 

"जो मन में आए…दे देना"….

 

"लेकिन बात पहले खुल जाए तो ज़्यादा बेहतर…बाद में दिक्कत पेश नहीं आती"…

"यू नो!…पैसा चीज़ ही ऐसी है कि बाद में बड़ों बड़ों के मन डोल जाते हैँ"

 

"मैँ तो यार!…तुच्छ सा..अदना सा प्राणी हूँ"…

"ज़्यादा ऊँची उड़ान उड़ने के बजाय ज़मीन पे चलना पसन्द करता हूँ मैँ"…

"बस!…आटे में नमक बराबर दे देना"…

 

"आप साफ-साफ कहें ना …कितना?"…

 

"ठीक है!…बाबा जी का तो आपको पता ही है …पचास लाख उनके और उसका दस परसैंट…याने के पाँच लाख मेरा"…

"टोटल हो गया पचपन लाख"…

 

"लेकिन मुझे पता चला है कि मेहरा ग्रुप वाले तो आपसे काफी कम में डील फाईनल करने जा रहे थे"…

 

"आपकी खबर सौ परसैंट सही है…सच्ची है लेकिन उनके मुँह से निवाला छीनने में यू नो…

"मुझे भी कोई ना कोई जवाब दे उन्हें टालना पड़ेगा"..

‘साथ ही ऊपर से नीचे तक काफी उठा-पटक करने की ज़रूरत पड़ेगी"…

"कईयों के मुँह बन्द करने पड़ेंगे"

 

"जी!…वो लौटाचन्द जी ने कहा था किसी और से बात करने के बजाय सीधा ‘सैटिंगानन्द’ जी से ही बात करना"

इसलिए मैँने सीधे-सीधे आपको कांटैक्ट किया वर्ना वो गैडगिल तो बाबा जी से भी डिस्काउंट दिलाने की बात कह रहा था"

 

"उस स्साले!…गैडगिल की तो मैँ…

"कोई भरोसा नहीं उसका…कई पार्टियों से एडवांस ले भी मुकर चुका है"..

"आप चाहें तो खुद पता कर लें"…

"मैँ तो कहता हूँ कि ऐसे काम से क्या फायदा?…बाद में उसके चक्कर काटते रहोगे"…

"वैसे एक बात टू बी फ्रैंक हो के कहूँ?….

 

"जी!…ज़रूर"…

 

‘खाना उसने भी है और खाना मैँने भी है लेकिन जहाँ वो आजकल मोटा होने के लिए ज़्यादा फैट्स…ज़्यादा प्रोटींन वगैरा ले रहा है…

वहीं मैँने आजकल पतला होने की ठानी है "…

इसलिए मार्निंग वॉक के अलावा  ‘रामदेव’ जी का योगा शुरू कर दिया है"….

"कमाल के चीज़ है ये योगा भी"…

"यू नो!… पिछले बीस दिनों में…मैँ पंद्र्ह किलो वेट लूज़ कर चुका हूँ"…

 

"इसलिए आप फिट-फिट भी लग रहे हैँ"…

 

"ट्रिंग…ट्रिंग…."…

 

"हैलो…कौन?"…

"लौटाचन्द जी….

"नमस्कार"…

"हाँ जी!…उसी के बारे में बात कर रहे थे"…

"बस!…फाईनल ही समझिए"…

"ठीक है!…एडवांस दिए देता हूँ"…

"कितना?"…

"पाँच लाख से कम नहीं?"…

"लेकिन अभी तो मेरे पास यही कोई तीन…सवा तीन के आस-पास पड़ा होगा"…

"ठीक है!…आप दो लाख लेते आएँ"…

"आज ही साईनिंग एमाउंट दे के डील फाईनल कर लेते हैँ"…

"नेक काम में देरी कैसे?"…

"आधे घंटे में पहुँच जाएँगे?"…

"ठीक है!..मैँ वेट कर रहा हूँ"…

ओ.के…"…

"बाय-बाय"फोन रख दिया जाता है…

 

"अपने लौटाचन्द जी थे"…

"बस..अभी आते ही होंगे"..

 

"तो क्या लौटाचन्द जी भी आपके साथ?"…

 

"जी!…पहली बार आर्गेनाईज़ करने की सोची है ना"…

"इसलिए अभी पूरा कॉंफीडैंस नहीं है"…

 

"चिंता ना करो..राम जी सब भली करेंगे"…

"मैँ तो कहता हूँ कि ऐसा चस्का लगेगा कि सारे काम..सारे धन्धे भूल जाओगे"…

"लाखों के वारे-न्यारे होंगे..लाखों के"…

 

"एक मिनट!..आप बैठें ..मैँ पेमैंट ले आता हूँ"…

"ठीक है…गिनने में भी तो वक्त लगेगा..एण्ड यू नो…..

 

"टाईम वेस्ट इज़ मनी वेस्ट"…

 

"हा हा हा हा..वैरी क्लैवर"…

 

"लीजिए…स्वामी जी!…गिन लीजिए..पूरे साढे तीन लाख है"…
बाकि के ढेढ लाख भी बस आते ही होंगे"…
और बाबा जी के पेमैंट तो डाईरैक्ट उनके आश्रम में पहुँचानी है ना?"…

"नहीं आजकल सख्ती चल रही है…

उड़ती-उड़ती खबर पता चली है कि  कुछ ‘सी,बी.आई’ वाले सेवादारो के भेष में आश्रम के चप्पे-चप्पे पे नज़र रखे बैठे हैँ"…

 

"तो फिर?"…

 

"चिंता की कोई बात नहीं है…हम आपको एक कोड वर्ड बताएँगे"…

 

"जी"..

"जो कोई भी वो कोड वर्ड आपको बताए..आप रकम उसके हवाले कर देना"…

"वो उसे हवाला के जरिए बाहरले मुल्कों में बाबा जी के बेनामी खातो में जमा करवा देगा"..

"ठीक है जी…जैसा आप उचित समझें"…

 

"ठक…ठक..ठक.."

"लगता है कि लौटाचन्द जी आ गए"…

 

"जी!..यही लगता है"…

 

"एक मिनट!…मैँ दरवाज़ा खोल के आता हूँ…आप आराम से गिनिए"…

 

"ठीक है"…

 

"आईए!…आईए…‘एस.एच.ओ’ साहब और….

गिरफ्तार कर लीजिए इस ढोंगी और पाखँडी को"…

 

"धोखा"….

 

"सारे सबूत!…आवाज़ और विडियो की शक्ल में रिकार्ड कर लिए हैँ मैँने इसके खिलाफ"…

"और आपके दिए इन नोटों पर भी इसकी उँगलियों  के निशान छप ही चुके होंगे"

 

"कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी पुलिस मेरा"…

"दो दिन भी अन्दर नहीं रख पाएगी तेरी ये पुलिस मुझे"..

"जानता नहीं!…पहचानता नहीं कि "बाबा जी महान है"…उनकी की पहुँच कहाँ तक है"…

"किंता ना कर…तेरे चहेते बाबा जी के आश्रम में भी रेड पड़ चुकी है"…

 

"क्या?"…

 

"इधर तेरा विडियो बन रहा था तो उधर उनका भी बन रहा था"…

 

"क्या?"…

"लौटाचन्द जी वहीं है और उन्हीं का फोन था उस वक्त कि….

काम हो गया है…हथोड़ा मार दो"

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

Delhi(India)

http://hansteraho.blogspot.com

+919810821361

+919896397625

"अलख निरंजन"

“अलख निरंजन”


***राजीव तनेजा***








“अलख निरंजन! बोल. ..बम….बम चिक बम। अलख निरंजन….टूट जाएं तेरे सारे बंधन” कहकर बाबा ने हुंकारा लगाया और इधर-उधर देखने के बाद मेरे साथ वाली खाली सीट पर आकर बैठ गया। पूरी ट्रेन खाली पड़ी है, लेकिन नहीं, सबको इसी डिब्बे में आकर मरना है। बाबा के फटेहाल कपड़ों को देखते हुए मैं बड़बड़ाया। सबको, मेरे पास ही खाली सीट नज़र आती है। कहीं और नहीं बैठ सकता था क्या? मैं परे हटता हुआ मन ही मन बोला, कहां जा रहे हो बच्चा? मेरी तरफ देखते हुए पूछा। ‘पानीपत’, मेरा अनमना सा संक्षिप्त जवाब था। डेली पैसैंजर हो? जी! मेरा बात करने का मन नहीं हो रहा था। 

जानता था कि सब एक नम्बर के ढोंगी हैं, पाखंडी हैं, इसलिए दूसरी तरफ मुंह करके खिड़की से बाहर ताकने लगा। काम क्या करते हो? रेडीमेड दरवाजे-खिड़कियों का काम है। ना चाहते हुए भी मैंने जवाब दिया। कहां इस कबाड़ के धन्धे में फंसा बैठा है वत्स? तेरा चेहरा तो कोई और ही कहानी कह रहा है। मेरी दुखती रग पर हाथ रखने की कोशिश थी यह। तेरे माथे की लकीरें बता रही हैं कि राज योग लिखा है तेरे भाग्य में। राज करेगा तू, राज। राज वाली बात सुनकर आस-पास बैठे यात्रियों का ध्यान भी बाबा की तरफ हो लिया। मैं मन ही मन हंसा कि सही ड्रामा है, पब्लिक को बेवकूफ बनाने का। किसी एक को लपेट लो, बाकी अपने आप खिंचे चले आएंगे। यहां खाने-कमाने को नहीं है और ये राज योग बता रहा है। 

हुंह!…वही पुराने घिसे-पिटे डायलॉग, कोई नई बात बताओ बाबा! मैं बोला, पता नहीं कब आएगा ये राजा वाला योग। मैं मन ही मन बुदबुदाया। अपना हाथ तो दिखाओ ज़रा। ये नहीं, दाहिना हाथ। मैंने भी पता नहीं, क्या सोचकर हाथ आगे बढ़ा दिया। तेरे हाथ की रेखाएं बता रही हैं कि तेरी आयु बडी लंबी है। पूरे सौ साल जिएगा। यह तो मालूम है मुझे। सभी कहते हैं कि शैतान का नाम लो और शैतान हाजिर, मेरा जवाब था। हुंह! यहां मन करता है कि अभी ट्रेन से कूद पड़ूं और यह मुझे लम्बी उम्र का झुनझुना थमाने की जुगत में है। मैं मन में विचरता हुआ बोला। मेरे चेहरे पर आते-जाते भावों को देख बाबा बोला, परेशान ना हो बच्चा! जहां इतना सब्र किया है वहां दो-चार साल और ठंड रख। राम जी भला करेंगे। चिंता ना कर, तेरा अच्छा समय आने वाला है। सही झुनझुना थमा रहे हो बाबा। यहां खाने-कमाने के लाले पड़े हैं और आप हो कि दो चार साल बाद का लॉलीपॉप थमा रहे हो। ताकि ना रुकते बने और ना ही चूसते बने। बिना बोले मुझसे रहा न गया।
यहां चिंता इतनी है कि सीधे चिता की तैयारी चल रही है। प्यासा प्यास से ना मर जाए कहीं, इसलिए मुंह में पानी आने का जुगाड़ बना दिया कि बेटा, इंतज़ार कर। अभी तक अच्छा समय आने का इंतज़ार ही तो कर रहा हूं और क्या कर रहा हूं? मैं बुदबुदाया। ना जाने कब आएगा अच्छा समय, मैंने उदास मन से सोचा। आज ये बाबा कह रहा है कि दो-चार साल इंतज़ार कर। कल को कोई दूसरा बाबा भी यही डायलॉग मार देगा, मैं बड़बड़ा उठा। फिर दो-चार साल और सही। बस यूं ही कटते-कटते कट जाएगी ज़िन्दगी, मैं अन्दर ही अन्दर ठण्डी आह भरता हुआ बोला।
मेरी देखादेखी और लोग भी हाथ दिखाने जुट गए कि बाबा, मेरा हाथ देखो बाबा! पहले मेरा देखो। देख बाबा देख, जी भर कर देख, आंखे फाड़-फाड़कर देख। सभी को लॉलीपॉप चाहिए, थमा दे। तुम्हारे बाप का क्या जाता है, मै मुंह फेरकर आहिस्ता से हंसता हुआ बोला। शश्श! टी.टी आ रहा है, जिलानी साहब पर नज़र पड़ते ही मैंने कहा। टी.टी का नाम सुनते ही मजमा लगाई भीड़ कब छंट गई पता भी नहीं चला। जिलानी साहब अपने दल बल के साथ आ पहुंचे थे। टिकट? टिकट दिखाइए। मैं? मेरे साथ बैठा बन्दा सकपका गया। हां, तुम। तुम्हीं से बातें कर रहा हूं। सर एम.एस.टी। सुपर चढ़ा है? जी, जी सर। दिखाओ? एक मिनट! एक मिनट सर, लीजिए सर। हम्म, यहां साईन कौन करेगा? निकालो तीन सौ बीस रुपये। सर, गलती से रह गया साईन करना। अभी कर देता हूं। पहले तीन सौ बीस निकालो, बाद में करते रहना साईन-वाईन। प्लीज़ सर! इस बार छोड़ दीजिए, प्लीज़। आईन्दा ध्यान रहेगा। देख लो इस बार तो छोड़ देता हूं, पर अगली बार अगर सुपर चढ़ा नहीं मिला तो पूरे तीन सौ बीस रुपये तैयार रखना।जी सर।
बहुत दिन हो गए तुमसे भी इंट्रोडक्शन किए हुए, मेरी तरफ ताकते हुए जिलानी साहब बोले। जी, जी सर। वो! मेरे उस काम का क्या हुआ? जिलानी साहब पलटकर पीछे आते अनुराग से बोले। जी, कैंटीन बन्द थी ना सर, 26 जनवरी के चक्कर में। एक दो दिन में ला दूंगा सर। ध्यान रखना अपने आप, मेरी आदत नहीं है बार-बार टोकने की। जी! जी सर। आपका टिकट? जिलानी साहब ‘मलंग बाबा’ की तरफ मुखातिब होते हुए बोले, पर कोई जवाब नहीं। आपसे पूछ रहा हूं जनाब, टिकट दिखाइए। हम? हम बाबा हैं। फिर, क्या करूं? जिलानी साहब ने तल्खी भरे स्वर में कहा। हम इस मोह-माया के बन्धनों से आज़ाद हैं बच्चा। अच्छा? जिलानी साहब भी तुक मिलाते हुए बोले। ये फालतू की बातें छोड़ो, सीधे-सीधे टिकट दिखाओ। मैंने कहा ना टिकट दिखाइए? जिलानी साहब तेज़ आवाज़ में बोले।
किससे? किससे टिकट मांग रहे हो बच्चा? आपसे। जानते नहीं, हम कौन हैं? आप जो कोई भी हैं, मुझे मतलब नहीं। बस आप टिकट दिखाएं। फालतू बात नहीं। अगर है तो दिखाते क्यों नहीं? मैं भी भड़क उठा। नहीं है, तो तीन सौ बीस रुपए निकालें। जिलानी साहब रसीद बुक संभालते हुए बोले। हां, टिकट तो नहीं है हमारे पास। कभी लेने की ज़रूरत ही नहीं समझी होगी ना? मैं बोल पड़ा। किसी ने कभी रोका ही नहीं हमें कभी। आज तो रोक लिया ना? टी.टी गरम होता हुआ बोला। आप सीधी तरह से पैसे निकालें, इतना वक्त नहीं है।
वक्त तो बच्चा, सचमुच तेरे पास नहीं है। बाबा जिलानी साहब के माथे को गौर से देखते हुए शांत स्वर में बोले- शनि तेरे सर पर मंडरा रहा है। राहू केतु पर सवार चला आ रहा है। जल्दी से उपाय कर ले, वर्ना पछताएगा। जो होगा देखा जाएगा, आप बस जल्दी से पैसे निकालो। मुझे पूरी गाड़ी चेक करनी है। जिलानी साहब की आवाज़ सख्त हो चली थी। टी.टी साहब अड़कर खड़े हो गए कि इस बाबा से पैसे वसूल कर ही रहेंगे। बहस खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। ना बाबा मानने को तैयार, ना जिलानी साहब झुकने को तैयार और आग लगाने के लिए तो मैं काफी था ही। मज़ा जो आता था इन सबमें। तमाशा देखने वालों की भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। एक टिकट में दो-दो मज़े जो मिल रहे थे। सफर का सफर और एंटरटेन्मेंट भी।
बहस चल ही रही थी कि सोनीपत आ गया। अगर आप पैसे नहीं देंगे तो मुझे जबरन आपको यहीं उतारना पड़ेगा, जिलानी साहब गुस्से से बोल पड़े। तू! तू उतारेगा मुझे? जी हां, मैं उतारूंगा आपको। जिलानी साहब अपनी बेल्ट कसते हुए दृढ़ आवाज़ में बोले। सब! सब हिसाब देना पड़ेगा तुझे। आज तूने मलंग बाबा का अपमान किया है, बाबा की नशेड़ी आंखें गुस्से से लाल हो चुकी थी। चला जा चुपचाप यहां से, वर्ना घोर अनर्थ हो जाएगा। तूने ईश्वर का अपमान किया है, मुझसे टिकट मांगता है? तेरी औकात ही क्या है? बाबा गुस्से से थर-थर कांपते हुए बोले।
तेरे जैसे छत्तीस मेरे आगे-पीछे घूमते हैं, हमेशा। बाबा आसपास इकट्ठे हुए मजमे को देखते हुए बोले। मुझे गुस्सा ना दिला, कहे देता हूं, वर्ना पछ्ताएगा। टिकट और मुझसे? ये! ये तू ठीक नहीं कर रहा है। मेरा काम है आप जैसे मुफ्तखोरों को पकड़ना और मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि मैं अपनी ड्यूटी ठीक से बजा रहा हूं। जिलानी साहब गुस्से से चिल्लाए। अब देख तमाशा। देख, कैसे मैं तुझे श्राप देता हूं। फिर ना कहना कि बाबा ने पहले चेताया नहीं। कहते हुए बाबा ने आवेशित होकर अपने झोले में हाथ डाला और जय काली कलकत्ते वाली का जाप करते हुए पता नहीं क्या मंतर पढ़ा और मुट्ठी को जिलानी साहब के चेहरे पर फूंक दिया।
कुछ राख-सी उड़ी और अपने टी.टी साहब का मुंह धूल से अटा पड़ा था। उतारो साले इस पाखंडी बाबा को, उनका गुस्सा भड़क उठा। हमको उतार सके, ये तुझमें दम नहीं। तू हमारे से है, हम तुमसे नहीं- बाबा गुस्से में भी शायरी करता-सा नज़र आया। तेरी इतनी औकात नहीं कि तू मुझे उतार सके। अच्छा? जिलानी साहब उपहास उड़ाते हुए बोले। देखता हूं, मुझे लिए बिना यहां से गाड़ी कैसे हिलती भी है? कहते हुए बाबा गाड़ी से उतरा और तेज़ी से इंजन की तरफ लपका। वो आगे-आगे और मुझ समेत सारी पब्लिक पीछे पीछे। पब्लिक को तो बस मसाला मिलना चाहिए, चाहे जैसे भी मिले। पूरा इंजॉय करती है, सो मैं भी कर रहा था।
इंजन तक पहुंचते ही बाबा सीधा छलांग लगाकर ड्राइवर के केबिन में जा घुसा और झोले से वही राख मंत्र पढ़कर फूंकना शुरू हो गया। ये क्या कर रहा है बेवकूफ? ट्रेन रोककर केबिन से बाहर निकलकर ड्राईवर चिल्लाया। शश्श….चुप, एकदम चुप और बाबा का मंत्र पढ़ना जारी था। तब तक बाहर भक्तजनों का रेला-सा हाथ जोड़ खड़ा हो चुका था। अंधविश्वासी कहीं के। कुछ नहीं होने वाला है। सब टिकट न लेने से बचने का ड्रामा भर है। मैं सबको कहता फिर रहा था, लेकिन कोई मेरी सुनने को तैयार ही नहीं। देखते ही देखते उस अधनंगे से मलंग बाबा को पता नहीं क्या सूझा कि सीधा छलांग मारकर पटरी पर आया और इंजन के सामने आकर खड़ा हो गया। अब देखता हूं कि कैसे तनिक सी भी हिलती है गाड़ी? है हिम्मत तो चला गाड़ी, वह जिलानी साहब को चैलेंज करता हुआ बोला। तूने बाबा का प्यार देखा है, क्रोध नहीं। गुस्से से टी.टी की तरफ देखते हुए बाबा बोला।
ईश्वर से! ईश्वर के बन्दों से टिकट मांगता है! तुझे इस सबका हिसाब देना होगा। आज ही और यहीं, इसी जगह पर। कहकर बाबा ने फिर वही राख इंजन की तरफ फूंकनी शुरू कर दी। कोई समझाओ यार इसे, बेमौत मारा जाएगा, टी.टी साहब भीड़ की तरफ मुखातिब होते हुए बोले। सब चुप, कोई टी.टी की बात पर ध्यान नहीं दे रहा था। ग्रीन सिग्नल दिखाई नहीं दे रहा क्या? जिलानी साहब ड्राईवर पर बरसे। जी! तो फिर चलाता क्यों नहीं? जी, ये बाबा…। बाबा गया तेल लेने, तू गाड़ी चला। टी.टी की भाषा भी अभद्र हो चली थी। चढ़ा दे गाड़ी, इस पर। लिख देंगे कि आत्महत्या करने चला था। आ गया अपने आप नीचे। हम क्या करें? चिंता ना कर, गवाही मैं दूंगा। चला गाड़ी। साहब, पता नहीं क्या खराबी आ गई है, स्टार्ट ही नहीं हो रहा है इंजन। तो, बन्द ही क्यों किया था? जिलानी साहब भड़कते हुए बोले। मैंने कहां बन्द किया? तो फिर क्या कोई भूत-प्रेत आकर इसे बन्द कर गया? जी, ये तो पता नहीं। कई बार कोशिश कर ली, लेकिन पता नहीं क्या बीमारी लग गई है इसे। ड्राईवर इंजन को लात मारता हुआ बोला। घूं घूं की आवाज़ सी आती है और फिर ठुस्स। अभी तक तो अच्छा-भला चलता आया है, दिल्ली से। ड्राईवर की आवाज़ में असमंजस भरा था।
पता नहीं क्या चक्कर है? उधर दूसरी तरफ भीड़ के बढ़ते हुजूम के साथ-साथ बाबा का ड्रामा भी बढ़ता ही जा रहा था। कभी इधर भभूती फूंके, कभी उधर। जब ग्रीन सिग्नल होने के बावजूद ट्रेन अपनी जगह से नहीं हिली तो स्टेशन मास्टर साहब दौड़े-दौड़े तुरंत आ पहुंचे। अरे चला ना इसे, चलाता क्यों नहीं? कब से ग्रीन सिग्नल हुआ पड़ा है, दिखाई नहीं दे रहा है क्या? अपनी तो तुझे चिंता है नहीं, मेरी भी नौकरी खतरे में डलवाएगा? पीछे शताब्दी आ रही है, निकाल इसे फटाफट। अपने बस का नहीं है, आप खुद ही कोशिश कर लो। ड्राईवर तैश में गाड़ी से उतरता हुआ बोला। आखिर, हुआ क्या है इसे? पता नहीं, अपने आप इंजन बन्द हो गया।
देख, कोई वायरिंग-शायरिंग ना हिल गई हो। स्टेशन मास्टर की आवाज़ नरम पड़ चुकी थी। सब देख लिया साहब, कहीं कोई खराबी नहीं दिख रही। ड्राईवर का वही रटा-रटाया सा जवाब। इतने में खबर पूरे सोनीपत स्टेशन पर फैल गई और बाबा की जय, बाबा की जय के नारे लगाते लोग उसी प्लैटफॉर्म पर इकट्ठा होने शुरू हो गए। हां, इस बाबा ने केबिन के अन्दर आकर कुछ फूंका और इंजन अपने आप बन्द हो गया, ड्राईवर बाबा की तरफ इशारा करता हुआ बोला। आखिर चक्कर क्या है? पता नहीं साहब। किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा है। सब इसी टी.टी. का किया धरा है। ना ये टिकट मांगता और ना ही ये लफड़ा होता, एक बोल पड़ा। तो क्या, अपनी ड्यूटी करना छोड़ दें? मैं भड़क उठा। तो अब करवा ले ना आराम से ड्यूटी। हुंह, बड़ा तरफदारी करने चला है, वह चिल्लाया।
उफ, पहले से ही ट्रेन सवा दो घंटे लेट है, ऊपर से ये ड्रामा। पता नहीं, कब चंडीगढ़ पहुंचेगी? एक सरदार जी परेशान होकर घड़ी देखते हुए बोले। कोर्ट में तारीख है आज की। नहीं पहुंचा, टाइम पर तो समझो प्लॉट गया हाथ से। वे रुआंसे होकर बोले। बड़ा पहुंचा हुआ महात्मा है, एक बोला। एक झटके में ही ट्रेन रोक दी, कमाल है। दूसरे ने हां में हां मिलाई। अरे, महात्मा नहीं अवतार कहो अवतार, किसी तीसरे की आवाज़ सुनाई दी। कोई पहुंचा हुआ फकीर मालूम होता है, एक और चहक उठा। अगर ऐसा है तो टिकट नहीं ले सकता था क्या? मैं फिर बोल पड़ा, चुप हो जा एकदम। परेशान सरदार जी मुझे गुस्से से घूरते हुए बोले। इतना ठुकेगा कि ज़िन्दगी भर याद रखेगा। एक पंगा खत्म होने को नहीं है और तू दूसरे की तैयारी किए बैठा है।
सबको अपने खिलाफ देखकर, मन मसोस कर मुझे चुप हो जाना पड़ा। जबतक टी.टी. माफी नहीं मांगेगा, तबतक ये बाबा गाड़ी नहीं चलने देगा। एक आवाज़ सुनाई दी, सही है बड़ा अड़ियल बाबा है। अपने टी.टी. साहब भी कौन-सा कम हैं? एक बार अड़ गए सो अड़ गए। मेरा इतना कहना था कि सबकी गुस्से भरी आंखे मुझे तरेरने लगी। एक काम करो, तुम ही माफी मांग लो यार स्टेशन मास्टर टी.टी. की तरफ देखते हुए बोले। मैं क्यों? मैं तो अपनी ड्यूटी कर रहा था।
अरे यार, देख तो लिया करो कम से कम कि किस से पंगा लेना है और किस से नहीं। ये क्या कि गधे-घोड़े सभी एक ही फीते से नाप दो, स्टेशन मास्टर साहब बोले। देख नहीं रहे कि सब कितने परेशान हो रहे हैं? आखिर क्या गलत किया है मैंने? जिलानी साहब तैश में बोले। अरे बाबा, कुछ गलत नहीं किया। बस खुश? टी.टी. की बात काटते हुए स्टेशन मास्टर साहब बोले। अब किसी भी तरह से चलता करो इस मुसीबत को, स्टेशन मास्टर की आवाज़ में मिमियाहट थी। कैसे? जो मर्ज़ी, जैसे मर्ज़ी करो लेकिन ये गाड़ी यहां से निकल जानी चाहिए अभी के अभी। वर्ना, समझ लो अपने साथ-साथ कईयों की नौकरी ले बैठोगे, स्टेशन मास्टर साहब गुस्से से बोले।
समझा कर यार! अगले महीने रिटायर हो रहा हूं और कोई पंगा नहीं चाहिए मुझे। इनक्वायरी बैठ गई तो समझो लटक गया मेरा फंड, मेरी पेन्शन। स्टेशन मास्टर साहब सहमे-सहमे से बोले। पता नहीं कैसे मैनैज करूंगा सब। बेटी की शादी करनी है, डेट फाईनल हो चुकी है। कार्ड तक बंट चुके हैं। अपनी अड़ी के चक्कर में मेरा जुलूस ना निकलवा देना, प्लीज़। अच्छा! आप ही बताइए, क्या करूं मैं? पांव पड़ूं क्या उसके? हां, हां ये ठीक रहेगा। कोई बोल पड़ा। मना लो यार, किसी भी तरीके से स्टेशन मास्टर बोले।
ना चाहते हुए भी जिलानी साहब को बाबा से माफी मांगनी पड़ी। अब तो मैं क्या मेरे बाप की तौबा, जो आईन्दा कभी किसी साधू या मलंग के मत्थे भी लगा। जिलानी साहब खुद से ही बातें करते हुए आगे निकल गए। मुझे किसी पागल कुत्ते ने काटा है, जो मैं नाहक पंगा मोल लेता फिरूं। उनका बड़बड़ाना जारी था। माफी मांगने से बाबा का गुस्सा शांत हो चुका था। मंत्र बुदबुदाते हुए उन्होंने अपने थैले से कुछ निकाल फिर इंजन की तरफ फूंक दिया।
हां, तो भइया ड्राईवर, अब तुम खुशी से ले जा सकते हो अपना छकड़ा, लेकिन मुझे ले जाना नहीं भूलना। हा…हा…हा मुझ समेत, सभी की हंसी छूट गई। ड्राईवर ने खटका दबाया और कमाल ये कि बिना कोई ना नुकुर किए इंजन एक ही झटके में स्टार्ट। अवाक से सबके मुंह खुले के खुले रह गए। हर कोई हक्का-बक्का। आश्चर्य भाव सभी के चेहरे पर तैर रहे थे। बाबा की जय हो, मलंग बाबा की जय हो- इन आवाज़ों से पूरा माहौल गूंज उठा। आंखे देख रही थीं, कान सुन रहे थे, लेकिन दिमाग को मानो विश्वास ही नहीं हो रहा था। और होता भी कैसे? कोई विश्वास करने लायक बात हो तब तो। लेकिन आंखों देखी को कैसे झुठला देगा राजीव? असमंजस भरी सोच में डूबा मैं चुपचाप अपनी सीट पर आ गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये सब हुआ तो कैसे हुआ।
सारे तर्क-वितर्क फेल होते नज़र आ रहे थे। ये जादू-वादू कुछ नहीं होता है। सब हाथ की सफाई, आंखों का धोखा है जैसी बचपन में सीखी बातें मुझे बेमानी-सी लगने लगी थी। कहीं हिप्नोटाईज़ ना कर दिया हो बाबा ने पूरी पब्लिक को। शायद, मैं खुद ही सवाल पूछ रहा था और खुद ही जवाब दे रहा था। शायद, कोई सुपर नैचरल पावर हो बाबा के पास। या कहीं सचमुच में कोई देवता, कोई अवतार तो नहीं है ये बाबा? इन जैसे सैंकड़ो सवाल बिना किसी वाजिब जवाब के मेरे दिमाग के भंवर में गोते लगाने लगे थे।
ये सारा चक्कर मुझे घनचक्कर किए जा रहा था। इतनी शक्ति, इतनी पावर एक आम इंसान में? हो ही नहीं सकता। क्या आज भी इतनी ताकत, इतना दम है मंत्रोचार में? कभी सोचा ना था। ऐसे किस्से तो मानो या न मानो, सरीखे टीवी-सीरियलों में ही देखे थे आज से पहले। सब फ्रॉड है, सब धोखा है। दिमाग मुझे इस सारे वाक्यों पर विश्वास करने से मना कर रहा था। लेकिन अगर सब फ्रॉड, सब धोखा है और छलावा मात्र है तो यकीनन बाबा की दाद देनी होगी कि कैसे उन्होंने सबकी आंखे फाड़ती नज़रों के सामने खुली आंखों से काजल चुरा लिया। जरूर कुछ ना कुछ चमत्कार, कुछ ना कुछ कशिश तो है ही बाबा में, मन बाबा की तारीफ करने लगा था। मैं हक्का-बक्का सा बाबा को ही टुकुर-टुकुर निहारे चला जा रहा था। उनके चेहरे पर तेजस्वी ओज सा चमकने लगा था।
उफ! मैं नादान समझ नहीं पाया उनको। अनजाने में भूल से पता नहीं कैसा-कैसा मज़ाक उड़ाता रहा। अब अपने किए पर पछतावा होने लगा था मुझे। ये ज़बान कट के क्यों ना गिर गई, उनके बारे में अपशब्द कहने से पहले? बाबा, मुझ अज्ञानी, मुझ पापी को क्षमा कर दो। मैं नास्तिक आपको पहचान नहीं पाया, कहते हुए मैंने बाबा के पांव पकड़ लिए। आंखों से कब अविरल आसुंओ की धार बह चली, पता भी न चला। मेरे चेहरे पर पश्चाताप के आंसू देख बाबा ने उठकर मुझे गले से लगा लिया। कोई बात नहीं बच्चा। बाबा की जय, बाबा की जय हो, इन आवाज़ों में मेरी आवाज़ भी शामिल हो चुकी थी। क्या सोच रहा है बच्चा?
मुझे सोच में डूबा देखकर बाबा ने पूछ लिया। जी कुछ खास नहीं, बस ऐसे ही। मैंने तो सुना था कि ये जादू-शादू कुछ नहीं होता, लेकिन वह ट्रेन…! मेरे चेहरे पर असमंजस का भाव था। सब ईश्वर की माया है बच्चा। लेकिन बाबा, ऐसा कैसे हो सकता है? मेरे चेहरे पर हैरत का भाव था। आंखो देखी पर विश्वास नहीं है, तुझे तो अब कानों सुनी पर कैसे विश्वास करेगा बच्चा? जी ये तो है, लेकिन? कुछ लेकिन, वेकिन नहीं, कहा ना! सब ईश्वर की माया है। बाबा मुझे अपनी शरण में ले लो, अपना दास बना लो कहते हुए मैंने हाथ से अपनी अंगूठी उतार बाबा के चरणों में अर्पित कर दी। हमें कुछ नहीं चाहिए बच्चा। बरसों पहले हम इन मोह माया के बन्धनों से मुक्त हो चुके हैं, आज़ाद हो चुके हैं। बाबा ये कुछ भी नहीं, बस ऐसे ही छोटी सी तुच्छ भेंट समझ कर रख लें।
मुझे तो बस आपका सानिध्य, आपका आर्शीवाद चाहिए। मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताएं? लगता है तुम नहीं मानोगे, जैसी तुम्हारी इच्छा। लेकिन इस छोटी-मोटी फुटकर सेवा से हमारा अभिप्राय पूरा नहीं होने वाला, कहते हुए उन्होंने अंगूठी उठाकर कुर्ते की जेब में रख ली। मेरे चेहरे पर प्रश्न सवार देखकर वह बोले, मैं तो मलंग आदमी हूं। अपने लिए कुछ नहीं चाहिए मुझे। दो जून खाने को मिल जाए और तन ढंकने को एक जोड़ी कपड़ा तो बहुत है मेरे लिए। फिर, मेरा अज्ञान अभी भी दूर नहीं हुआ था। एक छोटी-सी गौशाला बनवा रहा हूं, यही कोई पांच सौ गायों की। साथ में आठ-दस कमरे बनवा रहा हूं धर्मशाला के लिए, आने-जाने वालों के काम आएंगे। यही कोई दस लाख का खर्चा आएगा।
नेक कामों के लिए पैसे की तंगी तो रहती ही है हमेशा। शायद इशारा था उनकी तरफ से ये। बाबा, दान-दक्षिणा की आप चिंता न करें। जो बन पड़ेगा, जितना बन पड़ेगा जरूर मदद करूंगा। आखिर गौ माता की सेवा का सवाल जो है। हम मदद नहीं करेंगे तो कोई बाहर से तो आने से रहा, मैंने कहा। लेकिन बाबा, एक जिज्ञासा है। बोलो वत्स, बाबा ने सौम्य स्वर में पूछा। एक सवाल मेरे मन को खाए जा रहा है बार-बार। मेरा कौतुहल मुझे चैन से बैठने नहीं दे रहा है कि कैसे वह ट्रेन…मैंने बात अधूरी छोड़ दी। मेरी बात सुन बाबा हौले से मुस्काते हुए बोले, अच्छा सुन! पानीपत जाना है ना तुझे? जी! ठीक है स्टेशन आने दे, तेरी सब शंकाओं का निवारण कर दूंगा। अब खुश?
जी, मैं प्रसन्न होकर बोला। वो बेटा, मैंने तुम्हें बताया था ना गौशाला के लिए….। जी, आप बताएं कितने से आपका काम चल जाएगा? दान मांगा नहीं जाता बच्चा, जो तुम्हारी श्रद्धा हो। दो हज़ार ठीक रहेगा? मैं जेब से पर्स निकालता हुआ बोला। तुम्हारी मर्ज़ी। अपने आप देख लो, पुण्य का काम है। ठीक है बाबा, पांच हज़ार दे देता हूं, ये लीजिए। हमें अपने लिए कुछ नहीं चाहिए बच्चा, सब गौ माता की सेवा के काम आएगा। बाबा पैसे जेब के हवाले करते हुए बोले। मोक्ष क्या है, नाम-दान से क्या अभिप्राय है जैसी ज्ञान-ध्यान की बातों में पता ही नहीं चला कब पानीपत आ गया। बाबा मैं चलता हूं, पानीपत आ गया। ठीक है बच्चा पहुंचो अपनी मंज़िल पर, बाबा मुझसे विदा लेते हुए बोले -अपना ध्यान रखना।
बाबा, बताओ ना कैसे रोक दिया था आपने ट्रेन को? मेरे चेहरे पर बच्चों जैसी उत्सुकता देखकर बाबा मुस्कुराए, सब ईश्वर की माया है बच्चा। ये मेरा विज़िटिंग कार्ड रख लो, दर्शन देने कभी-कभार आ जाया करना हमारे आश्रम में। ईश्वर चन्द मेरा नाम है। ध्यान रहेगा ना? जी ज़रूर, विज़िटिंग कार्ड जेब में रखते हुए मैं बोला। वैसे भी बच्चा जो कोई मुझे एक बार जान लेता है ताउम्र नहीं भूलता है, बाबा की मुस्कान गहरी हो चली थी। आपकी महिमा अपरम्पार है प्रभु। बाबा, वह…। लगता है तुम जाने बिना नहीं मानोगे। अच्छा, कान इधर लाओ। उसके बाद उन्होंने जो कुछ भी मेरे कान में कहा, वह सुनकर मैं हक्का-बक्का सा रह गया। बोलने को शब्द नहीं मिल रहे थे। कानों को जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था। यकीन ही नहीं हो रहा था कि ये सब कैसे हो गया।
विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई मुझे दिनदहाडे पांच हज़ार रुपए नकद और दहेज में मिली सोने की अंगूठी का फटका लगा चुका था। हुआ दरअसल क्या कि जब बाबा, इंजन में ड्राईवर के पास गया तो उसने चुपके से ड्राईवर को पांच सौ का नोट देकर कहा था कि जबतक मैं इशारा ना करूं तबतक गाड़ी रोककर रखनी है। इतनी सिम्पल सी बात, मैं बेवकूफ समझ नहीं पाया। खुद अपनी ही नज़रों से शर्मसार हो जब मैं कुछ समझने लायक हुआ तो पाया कि बाबा आस-पास कहीं न था। अब मैं कभी अपने खाली पर्स को देखता, कभी अंगूठी विहीन अपने हाथ को। सच, वह ईश्वर चन्द का बच्चा अपनी ईश्वरी माया दिखा गया था। सही कह गया था वह ठग बाबा कि उसे एक बार जान लेने वाला ताउम्र कभी भूल नहीं सकता है।


***राजीव तनेजा *** 

>"अलख निरंजन"

>“अलख निरंजन”


***राजीव तनेजा***








“अलख निरंजन! बोल. ..बम….बम चिक बम। अलख निरंजन….टूट जाएं तेरे सारे बंधन” कहकर बाबा ने हुंकारा लगाया और इधर-उधर देखने के बाद मेरे साथ वाली खाली सीट पर आकर बैठ गया। पूरी ट्रेन खाली पड़ी है, लेकिन नहीं, सबको इसी डिब्बे में आकर मरना है। बाबा के फटेहाल कपड़ों को देखते हुए मैं बड़बड़ाया। सबको, मेरे पास ही खाली सीट नज़र आती है। कहीं और नहीं बैठ सकता था क्या? मैं परे हटता हुआ मन ही मन बोला, कहां जा रहे हो बच्चा? मेरी तरफ देखते हुए पूछा। ‘पानीपत’, मेरा अनमना सा संक्षिप्त जवाब था। डेली पैसैंजर हो? जी! मेरा बात करने का मन नहीं हो रहा था। 

जानता था कि सब एक नम्बर के ढोंगी हैं, पाखंडी हैं, इसलिए दूसरी तरफ मुंह करके खिड़की से बाहर ताकने लगा। काम क्या करते हो? रेडीमेड दरवाजे-खिड़कियों का काम है। ना चाहते हुए भी मैंने जवाब दिया। कहां इस कबाड़ के धन्धे में फंसा बैठा है वत्स? तेरा चेहरा तो कोई और ही कहानी कह रहा है। मेरी दुखती रग पर हाथ रखने की कोशिश थी यह। तेरे माथे की लकीरें बता रही हैं कि राज योग लिखा है तेरे भाग्य में। राज करेगा तू, राज। राज वाली बात सुनकर आस-पास बैठे यात्रियों का ध्यान भी बाबा की तरफ हो लिया। मैं मन ही मन हंसा कि सही ड्रामा है, पब्लिक को बेवकूफ बनाने का। किसी एक को लपेट लो, बाकी अपने आप खिंचे चले आएंगे। यहां खाने-कमाने को नहीं है और ये राज योग बता रहा है। 

हुंह!…वही पुराने घिसे-पिटे डायलॉग, कोई नई बात बताओ बाबा! मैं बोला, पता नहीं कब आएगा ये राजा वाला योग। मैं मन ही मन बुदबुदाया। अपना हाथ तो दिखाओ ज़रा। ये नहीं, दाहिना हाथ। मैंने भी पता नहीं, क्या सोचकर हाथ आगे बढ़ा दिया। तेरे हाथ की रेखाएं बता रही हैं कि तेरी आयु बडी लंबी है। पूरे सौ साल जिएगा। यह तो मालूम है मुझे। सभी कहते हैं कि शैतान का नाम लो और शैतान हाजिर, मेरा जवाब था। हुंह! यहां मन करता है कि अभी ट्रेन से कूद पड़ूं और यह मुझे लम्बी उम्र का झुनझुना थमाने की जुगत में है। मैं मन में विचरता हुआ बोला। मेरे चेहरे पर आते-जाते भावों को देख बाबा बोला, परेशान ना हो बच्चा! जहां इतना सब्र किया है वहां दो-चार साल और ठंड रख। राम जी भला करेंगे। चिंता ना कर, तेरा अच्छा समय आने वाला है। सही झुनझुना थमा रहे हो बाबा। यहां खाने-कमाने के लाले पड़े हैं और आप हो कि दो चार साल बाद का लॉलीपॉप थमा रहे हो। ताकि ना रुकते बने और ना ही चूसते बने। बिना बोले मुझसे रहा न गया।
यहां चिंता इतनी है कि सीधे चिता की तैयारी चल रही है। प्यासा प्यास से ना मर जाए कहीं, इसलिए मुंह में पानी आने का जुगाड़ बना दिया कि बेटा, इंतज़ार कर। अभी तक अच्छा समय आने का इंतज़ार ही तो कर रहा हूं और क्या कर रहा हूं? मैं बुदबुदाया। ना जाने कब आएगा अच्छा समय, मैंने उदास मन से सोचा। आज ये बाबा कह रहा है कि दो-चार साल इंतज़ार कर। कल को कोई दूसरा बाबा भी यही डायलॉग मार देगा, मैं बड़बड़ा उठा। फिर दो-चार साल और सही। बस यूं ही कटते-कटते कट जाएगी ज़िन्दगी, मैं अन्दर ही अन्दर ठण्डी आह भरता हुआ बोला।
मेरी देखादेखी और लोग भी हाथ दिखाने जुट गए कि बाबा, मेरा हाथ देखो बाबा! पहले मेरा देखो। देख बाबा देख, जी भर कर देख, आंखे फाड़-फाड़कर देख। सभी को लॉलीपॉप चाहिए, थमा दे। तुम्हारे बाप का क्या जाता है, मै मुंह फेरकर आहिस्ता से हंसता हुआ बोला। शश्श! टी.टी आ रहा है, जिलानी साहब पर नज़र पड़ते ही मैंने कहा। टी.टी का नाम सुनते ही मजमा लगाई भीड़ कब छंट गई पता भी नहीं चला। जिलानी साहब अपने दल बल के साथ आ पहुंचे थे। टिकट? टिकट दिखाइए। मैं? मेरे साथ बैठा बन्दा सकपका गया। हां, तुम। तुम्हीं से बातें कर रहा हूं। सर एम.एस.टी। सुपर चढ़ा है? जी, जी सर। दिखाओ? एक मिनट! एक मिनट सर, लीजिए सर। हम्म, यहां साईन कौन करेगा? निकालो तीन सौ बीस रुपये। सर, गलती से रह गया साईन करना। अभी कर देता हूं। पहले तीन सौ बीस निकालो, बाद में करते रहना साईन-वाईन। प्लीज़ सर! इस बार छोड़ दीजिए, प्लीज़। आईन्दा ध्यान रहेगा। देख लो इस बार तो छोड़ देता हूं, पर अगली बार अगर सुपर चढ़ा नहीं मिला तो पूरे तीन सौ बीस रुपये तैयार रखना।जी सर।
बहुत दिन हो गए तुमसे भी इंट्रोडक्शन किए हुए, मेरी तरफ ताकते हुए जिलानी साहब बोले। जी, जी सर। वो! मेरे उस काम का क्या हुआ? जिलानी साहब पलटकर पीछे आते अनुराग से बोले। जी, कैंटीन बन्द थी ना सर, 26 जनवरी के चक्कर में। एक दो दिन में ला दूंगा सर। ध्यान रखना अपने आप, मेरी आदत नहीं है बार-बार टोकने की। जी! जी सर। आपका टिकट? जिलानी साहब ‘मलंग बाबा’ की तरफ मुखातिब होते हुए बोले, पर कोई जवाब नहीं। आपसे पूछ रहा हूं जनाब, टिकट दिखाइए। हम? हम बाबा हैं। फिर, क्या करूं? जिलानी साहब ने तल्खी भरे स्वर में कहा। हम इस मोह-माया के बन्धनों से आज़ाद हैं बच्चा। अच्छा? जिलानी साहब भी तुक मिलाते हुए बोले। ये फालतू की बातें छोड़ो, सीधे-सीधे टिकट दिखाओ। मैंने कहा ना टिकट दिखाइए? जिलानी साहब तेज़ आवाज़ में बोले।
किससे? किससे टिकट मांग रहे हो बच्चा? आपसे। जानते नहीं, हम कौन हैं? आप जो कोई भी हैं, मुझे मतलब नहीं। बस आप टिकट दिखाएं। फालतू बात नहीं। अगर है तो दिखाते क्यों नहीं? मैं भी भड़क उठा। नहीं है, तो तीन सौ बीस रुपए निकालें। जिलानी साहब रसीद बुक संभालते हुए बोले। हां, टिकट तो नहीं है हमारे पास। कभी लेने की ज़रूरत ही नहीं समझी होगी ना? मैं बोल पड़ा। किसी ने कभी रोका ही नहीं हमें कभी। आज तो रोक लिया ना? टी.टी गरम होता हुआ बोला। आप सीधी तरह से पैसे निकालें, इतना वक्त नहीं है।
वक्त तो बच्चा, सचमुच तेरे पास नहीं है। बाबा जिलानी साहब के माथे को गौर से देखते हुए शांत स्वर में बोले- शनि तेरे सर पर मंडरा रहा है। राहू केतु पर सवार चला आ रहा है। जल्दी से उपाय कर ले, वर्ना पछताएगा। जो होगा देखा जाएगा, आप बस जल्दी से पैसे निकालो। मुझे पूरी गाड़ी चेक करनी है। जिलानी साहब की आवाज़ सख्त हो चली थी। टी.टी साहब अड़कर खड़े हो गए कि इस बाबा से पैसे वसूल कर ही रहेंगे। बहस खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। ना बाबा मानने को तैयार, ना जिलानी साहब झुकने को तैयार और आग लगाने के लिए तो मैं काफी था ही। मज़ा जो आता था इन सबमें। तमाशा देखने वालों की भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। एक टिकट में दो-दो मज़े जो मिल रहे थे। सफर का सफर और एंटरटेन्मेंट भी।
बहस चल ही रही थी कि सोनीपत आ गया। अगर आप पैसे नहीं देंगे तो मुझे जबरन आपको यहीं उतारना पड़ेगा, जिलानी साहब गुस्से से बोल पड़े। तू! तू उतारेगा मुझे? जी हां, मैं उतारूंगा आपको। जिलानी साहब अपनी बेल्ट कसते हुए दृढ़ आवाज़ में बोले। सब! सब हिसाब देना पड़ेगा तुझे। आज तूने मलंग बाबा का अपमान किया है, बाबा की नशेड़ी आंखें गुस्से से लाल हो चुकी थी। चला जा चुपचाप यहां से, वर्ना घोर अनर्थ हो जाएगा। तूने ईश्वर का अपमान किया है, मुझसे टिकट मांगता है? तेरी औकात ही क्या है? बाबा गुस्से से थर-थर कांपते हुए बोले।
तेरे जैसे छत्तीस मेरे आगे-पीछे घूमते हैं, हमेशा। बाबा आसपास इकट्ठे हुए मजमे को देखते हुए बोले। मुझे गुस्सा ना दिला, कहे देता हूं, वर्ना पछ्ताएगा। टिकट और मुझसे? ये! ये तू ठीक नहीं कर रहा है। मेरा काम है आप जैसे मुफ्तखोरों को पकड़ना और मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि मैं अपनी ड्यूटी ठीक से बजा रहा हूं। जिलानी साहब गुस्से से चिल्लाए। अब देख तमाशा। देख, कैसे मैं तुझे श्राप देता हूं। फिर ना कहना कि बाबा ने पहले चेताया नहीं। कहते हुए बाबा ने आवेशित होकर अपने झोले में हाथ डाला और जय काली कलकत्ते वाली का जाप करते हुए पता नहीं क्या मंतर पढ़ा और मुट्ठी को जिलानी साहब के चेहरे पर फूंक दिया।
कुछ राख-सी उड़ी और अपने टी.टी साहब का मुंह धूल से अटा पड़ा था। उतारो साले इस पाखंडी बाबा को, उनका गुस्सा भड़क उठा। हमको उतार सके, ये तुझमें दम नहीं। तू हमारे से है, हम तुमसे नहीं- बाबा गुस्से में भी शायरी करता-सा नज़र आया। तेरी इतनी औकात नहीं कि तू मुझे उतार सके। अच्छा? जिलानी साहब उपहास उड़ाते हुए बोले। देखता हूं, मुझे लिए बिना यहां से गाड़ी कैसे हिलती भी है? कहते हुए बाबा गाड़ी से उतरा और तेज़ी से इंजन की तरफ लपका। वो आगे-आगे और मुझ समेत सारी पब्लिक पीछे पीछे। पब्लिक को तो बस मसाला मिलना चाहिए, चाहे जैसे भी मिले। पूरा इंजॉय करती है, सो मैं भी कर रहा था।
इंजन तक पहुंचते ही बाबा सीधा छलांग लगाकर ड्राइवर के केबिन में जा घुसा और झोले से वही राख मंत्र पढ़कर फूंकना शुरू हो गया। ये क्या कर रहा है बेवकूफ? ट्रेन रोककर केबिन से बाहर निकलकर ड्राईवर चिल्लाया। शश्श….चुप, एकदम चुप और बाबा का मंत्र पढ़ना जारी था। तब तक बाहर भक्तजनों का रेला-सा हाथ जोड़ खड़ा हो चुका था। अंधविश्वासी कहीं के। कुछ नहीं होने वाला है। सब टिकट न लेने से बचने का ड्रामा भर है। मैं सबको कहता फिर रहा था, लेकिन कोई मेरी सुनने को तैयार ही नहीं। देखते ही देखते उस अधनंगे से मलंग बाबा को पता नहीं क्या सूझा कि सीधा छलांग मारकर पटरी पर आया और इंजन के सामने आकर खड़ा हो गया। अब देखता हूं कि कैसे तनिक सी भी हिलती है गाड़ी? है हिम्मत तो चला गाड़ी, वह जिलानी साहब को चैलेंज करता हुआ बोला। तूने बाबा का प्यार देखा है, क्रोध नहीं। गुस्से से टी.टी की तरफ देखते हुए बाबा बोला।
ईश्वर से! ईश्वर के बन्दों से टिकट मांगता है! तुझे इस सबका हिसाब देना होगा। आज ही और यहीं, इसी जगह पर। कहकर बाबा ने फिर वही राख इंजन की तरफ फूंकनी शुरू कर दी। कोई समझाओ यार इसे, बेमौत मारा जाएगा, टी.टी साहब भीड़ की तरफ मुखातिब होते हुए बोले। सब चुप, कोई टी.टी की बात पर ध्यान नहीं दे रहा था। ग्रीन सिग्नल दिखाई नहीं दे रहा क्या? जिलानी साहब ड्राईवर पर बरसे। जी! तो फिर चलाता क्यों नहीं? जी, ये बाबा…। बाबा गया तेल लेने, तू गाड़ी चला। टी.टी की भाषा भी अभद्र हो चली थी। चढ़ा दे गाड़ी, इस पर। लिख देंगे कि आत्महत्या करने चला था। आ गया अपने आप नीचे। हम क्या करें? चिंता ना कर, गवाही मैं दूंगा। चला गाड़ी। साहब, पता नहीं क्या खराबी आ गई है, स्टार्ट ही नहीं हो रहा है इंजन। तो, बन्द ही क्यों किया था? जिलानी साहब भड़कते हुए बोले। मैंने कहां बन्द किया? तो फिर क्या कोई भूत-प्रेत आकर इसे बन्द कर गया? जी, ये तो पता नहीं। कई बार कोशिश कर ली, लेकिन पता नहीं क्या बीमारी लग गई है इसे। ड्राईवर इंजन को लात मारता हुआ बोला। घूं घूं की आवाज़ सी आती है और फिर ठुस्स। अभी तक तो अच्छा-भला चलता आया है, दिल्ली से। ड्राईवर की आवाज़ में असमंजस भरा था।
पता नहीं क्या चक्कर है? उधर दूसरी तरफ भीड़ के बढ़ते हुजूम के साथ-साथ बाबा का ड्रामा भी बढ़ता ही जा रहा था। कभी इधर भभूती फूंके, कभी उधर। जब ग्रीन सिग्नल होने के बावजूद ट्रेन अपनी जगह से नहीं हिली तो स्टेशन मास्टर साहब दौड़े-दौड़े तुरंत आ पहुंचे। अरे चला ना इसे, चलाता क्यों नहीं? कब से ग्रीन सिग्नल हुआ पड़ा है, दिखाई नहीं दे रहा है क्या? अपनी तो तुझे चिंता है नहीं, मेरी भी नौकरी खतरे में डलवाएगा? पीछे शताब्दी आ रही है, निकाल इसे फटाफट। अपने बस का नहीं है, आप खुद ही कोशिश कर लो। ड्राईवर तैश में गाड़ी से उतरता हुआ बोला। आखिर, हुआ क्या है इसे? पता नहीं, अपने आप इंजन बन्द हो गया।
देख, कोई वायरिंग-शायरिंग ना हिल गई हो। स्टेशन मास्टर की आवाज़ नरम पड़ चुकी थी। सब देख लिया साहब, कहीं कोई खराबी नहीं दिख रही। ड्राईवर का वही रटा-रटाया सा जवाब। इतने में खबर पूरे सोनीपत स्टेशन पर फैल गई और बाबा की जय, बाबा की जय के नारे लगाते लोग उसी प्लैटफॉर्म पर इकट्ठा होने शुरू हो गए। हां, इस बाबा ने केबिन के अन्दर आकर कुछ फूंका और इंजन अपने आप बन्द हो गया, ड्राईवर बाबा की तरफ इशारा करता हुआ बोला। आखिर चक्कर क्या है? पता नहीं साहब। किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा है। सब इसी टी.टी. का किया धरा है। ना ये टिकट मांगता और ना ही ये लफड़ा होता, एक बोल पड़ा। तो क्या, अपनी ड्यूटी करना छोड़ दें? मैं भड़क उठा। तो अब करवा ले ना आराम से ड्यूटी। हुंह, बड़ा तरफदारी करने चला है, वह चिल्लाया।
उफ, पहले से ही ट्रेन सवा दो घंटे लेट है, ऊपर से ये ड्रामा। पता नहीं, कब चंडीगढ़ पहुंचेगी? एक सरदार जी परेशान होकर घड़ी देखते हुए बोले। कोर्ट में तारीख है आज की। नहीं पहुंचा, टाइम पर तो समझो प्लॉट गया हाथ से। वे रुआंसे होकर बोले। बड़ा पहुंचा हुआ महात्मा है, एक बोला। एक झटके में ही ट्रेन रोक दी, कमाल है। दूसरे ने हां में हां मिलाई। अरे, महात्मा नहीं अवतार कहो अवतार, किसी तीसरे की आवाज़ सुनाई दी। कोई पहुंचा हुआ फकीर मालूम होता है, एक और चहक उठा। अगर ऐसा है तो टिकट नहीं ले सकता था क्या? मैं फिर बोल पड़ा, चुप हो जा एकदम। परेशान सरदार जी मुझे गुस्से से घूरते हुए बोले। इतना ठुकेगा कि ज़िन्दगी भर याद रखेगा। एक पंगा खत्म होने को नहीं है और तू दूसरे की तैयारी किए बैठा है।
सबको अपने खिलाफ देखकर, मन मसोस कर मुझे चुप हो जाना पड़ा। जबतक टी.टी. माफी नहीं मांगेगा, तबतक ये बाबा गाड़ी नहीं चलने देगा। एक आवाज़ सुनाई दी, सही है बड़ा अड़ियल बाबा है। अपने टी.टी. साहब भी कौन-सा कम हैं? एक बार अड़ गए सो अड़ गए। मेरा इतना कहना था कि सबकी गुस्से भरी आंखे मुझे तरेरने लगी। एक काम करो, तुम ही माफी मांग लो यार स्टेशन मास्टर टी.टी. की तरफ देखते हुए बोले। मैं क्यों? मैं तो अपनी ड्यूटी कर रहा था।
अरे यार, देख तो लिया करो कम से कम कि किस से पंगा लेना है और किस से नहीं। ये क्या कि गधे-घोड़े सभी एक ही फीते से नाप दो, स्टेशन मास्टर साहब बोले। देख नहीं रहे कि सब कितने परेशान हो रहे हैं? आखिर क्या गलत किया है मैंने? जिलानी साहब तैश में बोले। अरे बाबा, कुछ गलत नहीं किया। बस खुश? टी.टी. की बात काटते हुए स्टेशन मास्टर साहब बोले। अब किसी भी तरह से चलता करो इस मुसीबत को, स्टेशन मास्टर की आवाज़ में मिमियाहट थी। कैसे? जो मर्ज़ी, जैसे मर्ज़ी करो लेकिन ये गाड़ी यहां से निकल जानी चाहिए अभी के अभी। वर्ना, समझ लो अपने साथ-साथ कईयों की नौकरी ले बैठोगे, स्टेशन मास्टर साहब गुस्से से बोले।
समझा कर यार! अगले महीने रिटायर हो रहा हूं और कोई पंगा नहीं चाहिए मुझे। इनक्वायरी बैठ गई तो समझो लटक गया मेरा फंड, मेरी पेन्शन। स्टेशन मास्टर साहब सहमे-सहमे से बोले। पता नहीं कैसे मैनैज करूंगा सब। बेटी की शादी करनी है, डेट फाईनल हो चुकी है। कार्ड तक बंट चुके हैं। अपनी अड़ी के चक्कर में मेरा जुलूस ना निकलवा देना, प्लीज़। अच्छा! आप ही बताइए, क्या करूं मैं? पांव पड़ूं क्या उसके? हां, हां ये ठीक रहेगा। कोई बोल पड़ा। मना लो यार, किसी भी तरीके से स्टेशन मास्टर बोले।
ना चाहते हुए भी जिलानी साहब को बाबा से माफी मांगनी पड़ी। अब तो मैं क्या मेरे बाप की तौबा, जो आईन्दा कभी किसी साधू या मलंग के मत्थे भी लगा। जिलानी साहब खुद से ही बातें करते हुए आगे निकल गए। मुझे किसी पागल कुत्ते ने काटा है, जो मैं नाहक पंगा मोल लेता फिरूं। उनका बड़बड़ाना जारी था। माफी मांगने से बाबा का गुस्सा शांत हो चुका था। मंत्र बुदबुदाते हुए उन्होंने अपने थैले से कुछ निकाल फिर इंजन की तरफ फूंक दिया।
हां, तो भइया ड्राईवर, अब तुम खुशी से ले जा सकते हो अपना छकड़ा, लेकिन मुझे ले जाना नहीं भूलना। हा…हा…हा मुझ समेत, सभी की हंसी छूट गई। ड्राईवर ने खटका दबाया और कमाल ये कि बिना कोई ना नुकुर किए इंजन एक ही झटके में स्टार्ट। अवाक से सबके मुंह खुले के खुले रह गए। हर कोई हक्का-बक्का। आश्चर्य भाव सभी के चेहरे पर तैर रहे थे। बाबा की जय हो, मलंग बाबा की जय हो- इन आवाज़ों से पूरा माहौल गूंज उठा। आंखे देख रही थीं, कान सुन रहे थे, लेकिन दिमाग को मानो विश्वास ही नहीं हो रहा था। और होता भी कैसे? कोई विश्वास करने लायक बात हो तब तो। लेकिन आंखों देखी को कैसे झुठला देगा राजीव? असमंजस भरी सोच में डूबा मैं चुपचाप अपनी सीट पर आ गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये सब हुआ तो कैसे हुआ।
सारे तर्क-वितर्क फेल होते नज़र आ रहे थे। ये जादू-वादू कुछ नहीं होता है। सब हाथ की सफाई, आंखों का धोखा है जैसी बचपन में सीखी बातें मुझे बेमानी-सी लगने लगी थी। कहीं हिप्नोटाईज़ ना कर दिया हो बाबा ने पूरी पब्लिक को। शायद, मैं खुद ही सवाल पूछ रहा था और खुद ही जवाब दे रहा था। शायद, कोई सुपर नैचरल पावर हो बाबा के पास। या कहीं सचमुच में कोई देवता, कोई अवतार तो नहीं है ये बाबा? इन जैसे सैंकड़ो सवाल बिना किसी वाजिब जवाब के मेरे दिमाग के भंवर में गोते लगाने लगे थे।
ये सारा चक्कर मुझे घनचक्कर किए जा रहा था। इतनी शक्ति, इतनी पावर एक आम इंसान में? हो ही नहीं सकता। क्या आज भी इतनी ताकत, इतना दम है मंत्रोचार में? कभी सोचा ना था। ऐसे किस्से तो मानो या न मानो, सरीखे टीवी-सीरियलों में ही देखे थे आज से पहले। सब फ्रॉड है, सब धोखा है। दिमाग मुझे इस सारे वाक्यों पर विश्वास करने से मना कर रहा था। लेकिन अगर सब फ्रॉड, सब धोखा है और छलावा मात्र है तो यकीनन बाबा की दाद देनी होगी कि कैसे उन्होंने सबकी आंखे फाड़ती नज़रों के सामने खुली आंखों से काजल चुरा लिया। जरूर कुछ ना कुछ चमत्कार, कुछ ना कुछ कशिश तो है ही बाबा में, मन बाबा की तारीफ करने लगा था। मैं हक्का-बक्का सा बाबा को ही टुकुर-टुकुर निहारे चला जा रहा था। उनके चेहरे पर तेजस्वी ओज सा चमकने लगा था।
उफ! मैं नादान समझ नहीं पाया उनको। अनजाने में भूल से पता नहीं कैसा-कैसा मज़ाक उड़ाता रहा। अब अपने किए पर पछतावा होने लगा था मुझे। ये ज़बान कट के क्यों ना गिर गई, उनके बारे में अपशब्द कहने से पहले? बाबा, मुझ अज्ञानी, मुझ पापी को क्षमा कर दो। मैं नास्तिक आपको पहचान नहीं पाया, कहते हुए मैंने बाबा के पांव पकड़ लिए। आंखों से कब अविरल आसुंओ की धार बह चली, पता भी न चला। मेरे चेहरे पर पश्चाताप के आंसू देख बाबा ने उठकर मुझे गले से लगा लिया। कोई बात नहीं बच्चा। बाबा की जय, बाबा की जय हो, इन आवाज़ों में मेरी आवाज़ भी शामिल हो चुकी थी। क्या सोच रहा है बच्चा?
मुझे सोच में डूबा देखकर बाबा ने पूछ लिया। जी कुछ खास नहीं, बस ऐसे ही। मैंने तो सुना था कि ये जादू-शादू कुछ नहीं होता, लेकिन वह ट्रेन…! मेरे चेहरे पर असमंजस का भाव था। सब ईश्वर की माया है बच्चा। लेकिन बाबा, ऐसा कैसे हो सकता है? मेरे चेहरे पर हैरत का भाव था। आंखो देखी पर विश्वास नहीं है, तुझे तो अब कानों सुनी पर कैसे विश्वास करेगा बच्चा? जी ये तो है, लेकिन? कुछ लेकिन, वेकिन नहीं, कहा ना! सब ईश्वर की माया है। बाबा मुझे अपनी शरण में ले लो, अपना दास बना लो कहते हुए मैंने हाथ से अपनी अंगूठी उतार बाबा के चरणों में अर्पित कर दी। हमें कुछ नहीं चाहिए बच्चा। बरसों पहले हम इन मोह माया के बन्धनों से मुक्त हो चुके हैं, आज़ाद हो चुके हैं। बाबा ये कुछ भी नहीं, बस ऐसे ही छोटी सी तुच्छ भेंट समझ कर रख लें।
मुझे तो बस आपका सानिध्य, आपका आर्शीवाद चाहिए। मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताएं? लगता है तुम नहीं मानोगे, जैसी तुम्हारी इच्छा। लेकिन इस छोटी-मोटी फुटकर सेवा से हमारा अभिप्राय पूरा नहीं होने वाला, कहते हुए उन्होंने अंगूठी उठाकर कुर्ते की जेब में रख ली। मेरे चेहरे पर प्रश्न सवार देखकर वह बोले, मैं तो मलंग आदमी हूं। अपने लिए कुछ नहीं चाहिए मुझे। दो जून खाने को मिल जाए और तन ढंकने को एक जोड़ी कपड़ा तो बहुत है मेरे लिए। फिर, मेरा अज्ञान अभी भी दूर नहीं हुआ था। एक छोटी-सी गौशाला बनवा रहा हूं, यही कोई पांच सौ गायों की। साथ में आठ-दस कमरे बनवा रहा हूं धर्मशाला के लिए, आने-जाने वालों के काम आएंगे। यही कोई दस लाख का खर्चा आएगा।
नेक कामों के लिए पैसे की तंगी तो रहती ही है हमेशा। शायद इशारा था उनकी तरफ से ये। बाबा, दान-दक्षिणा की आप चिंता न करें। जो बन पड़ेगा, जितना बन पड़ेगा जरूर मदद करूंगा। आखिर गौ माता की सेवा का सवाल जो है। हम मदद नहीं करेंगे तो कोई बाहर से तो आने से रहा, मैंने कहा। लेकिन बाबा, एक जिज्ञासा है। बोलो वत्स, बाबा ने सौम्य स्वर में पूछा। एक सवाल मेरे मन को खाए जा रहा है बार-बार। मेरा कौतुहल मुझे चैन से बैठने नहीं दे रहा है कि कैसे वह ट्रेन…मैंने बात अधूरी छोड़ दी। मेरी बात सुन बाबा हौले से मुस्काते हुए बोले, अच्छा सुन! पानीपत जाना है ना तुझे? जी! ठीक है स्टेशन आने दे, तेरी सब शंकाओं का निवारण कर दूंगा। अब खुश?
जी, मैं प्रसन्न होकर बोला। वो बेटा, मैंने तुम्हें बताया था ना गौशाला के लिए….। जी, आप बताएं कितने से आपका काम चल जाएगा? दान मांगा नहीं जाता बच्चा, जो तुम्हारी श्रद्धा हो। दो हज़ार ठीक रहेगा? मैं जेब से पर्स निकालता हुआ बोला। तुम्हारी मर्ज़ी। अपने आप देख लो, पुण्य का काम है। ठीक है बाबा, पांच हज़ार दे देता हूं, ये लीजिए। हमें अपने लिए कुछ नहीं चाहिए बच्चा, सब गौ माता की सेवा के काम आएगा। बाबा पैसे जेब के हवाले करते हुए बोले। मोक्ष क्या है, नाम-दान से क्या अभिप्राय है जैसी ज्ञान-ध्यान की बातों में पता ही नहीं चला कब पानीपत आ गया। बाबा मैं चलता हूं, पानीपत आ गया। ठीक है बच्चा पहुंचो अपनी मंज़िल पर, बाबा मुझसे विदा लेते हुए बोले -अपना ध्यान रखना।
बाबा, बताओ ना कैसे रोक दिया था आपने ट्रेन को? मेरे चेहरे पर बच्चों जैसी उत्सुकता देखकर बाबा मुस्कुराए, सब ईश्वर की माया है बच्चा। ये मेरा विज़िटिंग कार्ड रख लो, दर्शन देने कभी-कभार आ जाया करना हमारे आश्रम में। ईश्वर चन्द मेरा नाम है। ध्यान रहेगा ना? जी ज़रूर, विज़िटिंग कार्ड जेब में रखते हुए मैं बोला। वैसे भी बच्चा जो कोई मुझे एक बार जान लेता है ताउम्र नहीं भूलता है, बाबा की मुस्कान गहरी हो चली थी। आपकी महिमा अपरम्पार है प्रभु। बाबा, वह…। लगता है तुम जाने बिना नहीं मानोगे। अच्छा, कान इधर लाओ। उसके बाद उन्होंने जो कुछ भी मेरे कान में कहा, वह सुनकर मैं हक्का-बक्का सा रह गया। बोलने को शब्द नहीं मिल रहे थे। कानों को जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था। यकीन ही नहीं हो रहा था कि ये सब कैसे हो गया।
विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई मुझे दिनदहाडे पांच हज़ार रुपए नकद और दहेज में मिली सोने की अंगूठी का फटका लगा चुका था। हुआ दरअसल क्या कि जब बाबा, इंजन में ड्राईवर के पास गया तो उसने चुपके से ड्राईवर को पांच सौ का नोट देकर कहा था कि जबतक मैं इशारा ना करूं तबतक गाड़ी रोककर रखनी है। इतनी सिम्पल सी बात, मैं बेवकूफ समझ नहीं पाया। खुद अपनी ही नज़रों से शर्मसार हो जब मैं कुछ समझने लायक हुआ तो पाया कि बाबा आस-पास कहीं न था। अब मैं कभी अपने खाली पर्स को देखता, कभी अंगूठी विहीन अपने हाथ को। सच, वह ईश्वर चन्द का बच्चा अपनी ईश्वरी माया दिखा गया था। सही कह गया था वह ठग बाबा कि उसे एक बार जान लेने वाला ताउम्र कभी भूल नहीं सकता है।


***राजीव तनेजा ***