“बडा दिन”
***राजीव तनेजा***
“बात पिछले साल की है….चार दिन थे अभी त्योहार आने में…
मैँ मोबाईल से दनादन ‘एस.एम.एस’किए जा रहा था”
“क्रिसमस का त्योहार जो सिर पर था लेकिन ये ‘एस.एम.एस’ मैँ..
अपने खुदगर्ज़ दोस्तों को या फिर मतलबी रिश्तेदारों को नहीं कर रहा था”
“ये तो मैँ उन रेडियो वालों को भेज रहा था जो…
‘साँवरिया’ और ‘ओम शांति ओम’ के गानों के बीच-बीच में अपनी टाँग अडाते हुए बार-बार ..
फलाने व ढीमके नम्बर पे ‘एस.एम.एस’ करने की गुजारिश कर रहे थे कि…
फलाने-फलाने नम्बर पे ‘जैकपॉट’लिख के ‘एस.एम.एस’ करो तो…
‘साँता’आपके घर-द्वार आ सकता है ढेर सारे ईनामात लेकर”
“सो!…मैने भी चाँस लेने की सोची कि यहाँ दिल वालों की दिल्ली में लॉटरी तो बैन है ही …
तो चलो ‘एस.एम.एस’ ही सही”…
“क्या फर्क पडता है?”
“बात तो एक ही है”…
“एक साक्षात जुआ है तो दूसरा मुखौटा ओडे उसी के पद-चिन्हों पे खुलेआम चलता हुआ उसी का कोई भाई-भतीजा”
“साले!…यहाँ भी रिश्तेदारी निभाने लगे”
“सो!…अपुन भी किए जा रहे थे ‘एस.एम.एस’ पे ‘एस.एम.एस’कि….
जब खुद ऊपरवाला आ के छप्पर फाड रहा है अपने तम्बू का और…
बम्बू समेत ही हमें ले चल रहा है शानदार-मालादार भविष्य की तरफ कि…
“लै पुत्तरर !..कर लै हुण मौजाँ ही मौज़ाँ”
“हो जाण गे हुण तेरे वारे-न्यारे”
“अब ये कोई ज़रूरी नहीं कि हमेशा तीर ही लगें निशाने पे”…
“तुक्के भी तो लग ही जाया करते हैँ निशाने पे कभी-कभार”…
“कोई हैरानी की बात नहीं है इसमें जो इस कदर कौतुहल भरा चौखटा लिए मेरी तरफ ताके चले जा रहे हैँ आप”
“क्या किस्मत के धनी सिर्फ आप ही हो सकते हैँ?”
“मैँ नहीं”…
“उसके घर देर है …अन्धेर नहीं”…
“कुछ तो उसकी बे-आवाज़ लाठी से डरो”
“अब यूँ समझ लो कि अपुन को तो पूरा का पूरा सोलह ऑने यकीन ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास हो चला है कि…
अपनी बरसों से जंग खाई किस्मत का दरवाज़ा…
अब खुला कि….अब खुला”
“दिन में पच्चीस-पच्चीस दफा कलैंडर की तरफ ताकता कि अब कितने दिन बचे हैँ पच्चीस तारीख आने में”
“पच्चीस तारीख!…?”..
“अरे!…बुरबक्क…लगा दी ना टोक”
“हाँ!…पच्चीस तारीख”
“कितनी बार कहा है कि यूँ सुबह-सुबह किसी के शुभ काम में अढंगा मत लगाया करो लेकिन…
तुम्हें अक्ल आए तब ना”
“पच्चीस बार पहले ही बता चुका हूँ कि पच्चीस दिसम्बर को ही तो मनाया जाता है ‘बडा दिन’ दुनिया भर में”…
और आप हैँ कि हर बार इसे ‘बडा खाना’ समझ लार टपकाने लगते हैँ”
“पेटू इंसान कहीं के “…
“बडा खाना तो होता है फौज में लेकिन तुम क्या जानो ये फौज-वौज के बारे में”…
“कभी राईफल हाथ में पकड के भी देखी है या माउज़र चला के देखा है कभी?”
“छोडो!…अब ये तुम्हारे लडकियों की नाज़ुक कलाईयाँ को थामने को बेताब हाथ क्या राईफल-शाईफल पकडेंगे?”
“यू!..बेवाकूफ ‘सिविलियन’…”
“इन मेनकाओं का मोह त्याग …देश की फिक्र करो बन्धुवर…देश की”
“हाँ!..तो मैँ कह रहा था कि जैसे-जैसे पच्चीस तारीख नज़दीक आती जा रही थी…
मेरी ‘एस.एम.एस’करने की स्पीड में भी तेज़ी से इज़ाफा होता जा रहा था”…
“कई हज़ार के तो मैँ रिचार्ज करवा चुका था अभी तक ”
“पुराना चावल जो ठहरा”
“मालुम जो था कि जितने ज़्यादा ‘एस.एम.एस’…उतना ही ज़्यादा चाँस जीतने का”
“सो!…भेजे जा रहा था धडाधड ‘एस.एम.एस’ पे ‘एस.एम.एस'”
“अब तो मोबाईल में भी बैलैंस कम हो चला था लेकिन फिक्र किस कम्भखत को थी?”
“लेकिन सच कहूँ तो थोडी टैंशन तो थी ही कि सब यार-दोस्त तो पहले से ही बिदके पडे हैँ अपुन से “…
“फाईनैंस का इंतज़ाम कैसे होगा?”.. .
“कहाँ से होगा?”
“ऐसे आडॆ वक्त पे अपने ‘जीत बाबू’की याद आ गयी”
“बडे सज्जन टाईप के इंसान हैँ”…
“किसी को न नहीं कहा आज तक”
“भले ही कितनी भी तंगी चल रही हो लेकिन कोई उनके द्वार से खाली नहीं गया कभी”
“किसी पराए का दुख तक नहीं देखा जाता उनसे”
“नाज़ुक दिल के जो ठहरे”
“जो आया…जब आया…हमेशा सेवा को तत्पर”
“इतने दयालु कि कोई गारैंटी भी नहीं माँगते”
“बस तसल्ली के लिए घर,दुकान,प्लाट या गाडी-घोडे के कागज़ात भर रख लेते हैँ अपने पास ”
“वैसे औरों से तो दस टका लेते है मंथली का लेकिन…
अपुन जैसे पर्मानैंट कस्टमरज़ के लिए विशेष डिस्काउंट दे देते हैँ”
“बस बदले में उनके छोटे-मोटे काम करने पड जाते हैँ जैसे…
भैंसो को चारा डालना….
उनके ‘टोमी’ को सुबह-शाम गली-मोहल्ले में घुमा लाना”
“काम का काम हो जाता है और सैर की सैर”
“इसी बहाने अपुन का भी वॉक-शॉक हो जाता है”…
“वैसे इस बेफाल्तु से काम के लिए अपने पास अपने लिए भी टाईम कहाँ है?”
“ये तो बाबा रामदेव जी के सोनीपत वाले शिविर में उन्हें कहते सुना था कि…
सुबह-सुबह चलना सेहत के लिए फायदेमन्द है”
“फायदे की बात और वो मै ना मानूँ? …
“ऐसा हरजाई नहीं”
“ऐसी गुस्ताखी करने की मैं सोच भी कैसे सकता था?”
“सो!..अपुन ने भी सोच-समझ के अँगूठा टिकाया और…
अपने जीत बाबू से पाँच ट्के ब्याज पे पैसा उठा धडाधड झोँक दिया इस ‘एस.एम.एस’ की आँधी में”
“अब दिल की धडकनें दिन प्रतिदिन तेज़ होने लगी ठीक कि …
क्या होगा?…
“कैसे सँभाल पाउँगा इतनी दौलत को?”
“कभी देखा जो नहीं था ना ढेर सारा पैसा एक साथ”
“क्या-क्या खरीदूँगा?”…
“क्या-क्या करूँगा?”जैसे सैंकडो सवाल मन में उमड रहे थे”
“मैँ अकेली जान!..कैसे मैनेज करूँगा सब का सब?”
“हाँ!..अकेली ही कहना ठीक रहेगा”…
“बीवी को तो कब का छोड चुका था मैँ”
“वैसे!..अगर ईमानदारी से सच कहूँ तो उसी ने मुझे छोडा था”
“अब पछताती होगी “…
“उस बावली को मेरे सारे काम ही जो फाल्तू के लगते थे”..
“हमेशा पीछे पडी रहती थी के बचत करो…बचत करो”…
“कोई काम नहीं आया है और ना कोई आएगा”…
“काम आएगा तो सिर्फ गाँठ में बन्धा पैसा ही”
“दोस्त-यार…रिश्तेदार सब बेकार का…
फालतू का जमघट है”…
“बच के रहो इनसे”
“उस बावली को क्या पता कि ज़िन्दगी कैसे जिया करते हैँ”..
“उसे तो बस यही फिक्र पडी रहती हमेशा कि…
‘फीस का इंतज़ाम हुआ बच्चों की?’…
‘ये नैट कटवा क्यूँ नहीं देते?’…
‘कार साफ करने वाला पैसे माँग रहा था’…
‘गाडी की किश्त जमा करवा दी?’
“वो बोल-बोल के परेशान हुए रहती थी बे-फाल्तू में ही”
“शायद!…इसी चक्कर में दुबली भी बहुत हो गई थी”
“अरे!…अगर फीस नहीं भरी तो कौन सा आफत आ जाएगी?”…
“ज़्यादा से ज़्यादा क्या करेंगे?”…
“नाम ही काट देंगे ना?”
“तो काट दें साले!…”…
“कौन रोकता है?”…
“सरकारी स्कूल बगल में ही तो है”…
“एक तो फीस भी कम…
“ऊपर से पैदल का रास्ता”…
“बचत ही बचत”…
“उल्टा!..जो पैसे बच जाएंगे…
तो उनसे कार की किश्त भी टाईम पे भर दी जाएगी”
“वैरी सिम्पल”
“ये आना-जाना तो चलता ही रहता है”
“कभी इस स्कूल तो कभी उस स्कूल”
“कहती थी कि नैट कटवा दूँ”…
“हुँह!..बडी आई नैट कटवाने वाली”…
“इतनी जो फैन मेल बनाई है दो बरस में…
सब!..छू मंतर नहीं हो जाएगी?”
“गुरू!..यहाँ तो चढते सूरज को सलाम है”…
“दिखते रहोगे तो बिकते रहोगे”…
“दिखना बन्द तो समझो बिकना भी बन्द”
“बैठे रहो आराम से”
“फैनज़ का क्या है?”…
“आज हैँ…कल नहीं”…
“आज शाहरुख के कर रहे हैँ तो कल रितिक के पोस्टर रौशन करेंगे लडकियों के बैडरूम”
“टिकाऊ नहीं होती है ये प्रसिद्धी-वर्सिद्धी “…
“बडे जतन से संभाला जाता है इसे”
“अपने!..’कुमार गौरव’का हाल तो मालुम ही है ना?”
“वन फिल्म वण्डर”
“एक फिल्म से ही सर आँखों पे बिठा लिया था पब्लिक ने और…
अगले ही दिन दूजी फिल्म पे उसी दिवानी पब्लिक ने ज़मी पे भी ला पटका था”
“टाईम का कुछ पता नहीं”…
“आज अच्छा है”….
“कल का मालुम नहीं”….
“रहे…रहे”…
“ना रहे …ना रहे”
“क्या यार!…यहाँ तो पहले ही टैंशन है इतना कि मोबाईल में बैलैंस बचा पडा है और…
दिन जो हैँ वो प्रतिदिन कम होते जा रहे हैँ”
“कैसे भेज पाउंगा सारे पैसे के ‘एस.एम.एस’?”
“अब ये सब सोच-सोच के मैँ सोच में डूबा हुआ ही था कि घंटी बजी और लगा कि…
जैसे मेरे सभी सतरंगी सपनों के सच होने का वक्त आ गया”
“मेरे बारे में मालुमात किया उन्होंने ….
पूछने पे पता चला कि रेडियो वाले ही थे और मेरा नम्बर उन्होंने सलैक्ट कर लिया है बम्पर ईनाम के लिए ”
“बाँछे खिल उठी मेरी”…
“इंतज़ार की घडियाँ खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी”
“प्यास के मारे हलक सूखा जा रहा था लेकिन पानी पीने का होश और फुरसत किसे थी?”
डर जो था कि कहीं ‘साँता जी’ गल्ती से ही किसी और के घर ना जा घुसें”…
“खास कर के बाजू वाले शर्मा जी के यहाँ”…
“साले!…दोगले किस्म के इंसान”..
“सामने कुछ और…पीठ पीछे कुछ”
“ऊपर-ऊपर से तो बेटा-बेटा करते रहते थे और अन्दर ही अन्दर मेरी ही बीवी पे नज़र रखते थे”
“बडा समझाते रहते थे मुझे दिन भर कि …
“बेटा ऐसे नहीं करो…वैसे नहीं करो”
“अरे!…मेरा घर …मेरी बीवी…
मेरी मरज़ी जो जी में आए करूँ”
“तुम होते कौन हो बीच में अडंगी लगाने वाले?”
“कहीं!…बीवी ही तो नहीं सिखा के गई उन्हें ये सब?”
“क्या पता!..पीठ पीछे क्या-क्या गुल खिलते रहे हैं यहाँ?”
“ये सब सोच-सोच के मैँ परेशान हो ही रहा था कि साँता जी आ पहुँचे”…
“उनका ओज से भरा चेहरा देख ही मेरे सभी दुख ….सभी चिंताएँ हवा हो गई”
“लम्बा तगडा कसरती बदन”…
“सुर्ख लाल दमकता चेहरा”…
“झक लाल कपडे”..
“उन्होंने बडे ही प्यार से सर पे हाथ फिराया”…
“मस्तक को प्यार से चूमा”
“चेहरा ओज से परिपूर्ण था ”
“नज़रें मिली तो मैँ टकटकी लगाए एकटक देखता रह गया”
“आँखे चौंधिया सी रही थी”…
“सो!…ज़्यादा देर तक देख नहीं पाया मैँ”
“निद्रा के आगोश ने मुझे घेर लिया था”
“आँखे बन्द होने को थी”
“मुँह में आए शब्द मानो अपनी आवाज़ खो चुके थे”…
“चाह कर भी मैँ कुछ कह नहीं पा रहा था”
“शायद पवित्र आत्मा से मेरा पहला सामना था इसलिए”
“ऐसा ना मैंने पहले कभी देखा था और ना ही कभी इस बारे में कुछ सुना था”
“शायद!…आत्मा से परमात्मा का मिलन इसे ही कहते होंगे ”
“ये आम इंसान से परम ज्ञानी बनने का सफर बहुत भा ही रहा था मुझे कि …
उन्होंने पूछ लिया…
“बता वत्स !…क्या चाहिए तुझे?”
“बता!..क्या इच्चा है तेरी?”…
“मेरे कंठ से आवाज़ न निकली”
उन्होंने फिर प्रेम से पूछा”बता!…तेरी रज़ा क्या है?”
“चुप देख मुझे …
उन्होंने खुद ही ‘एयर कंडीशनर’ की तरफ इशारा किया”
“मैंने मुण्डी हिला हामी भर दी”
“फिर टीवी की तरफ इशारा किया तो मैँने फिर मुण्डी हिला दी”
“उसके बाद तो फ्रिज…
‘डीवीडी प्लेयर’…
‘होम थियेटर’…
‘हैण्डी कैम’…सबके लिए मैँ हाँ करता चला गया”
“वैसे होने को तो ये सारी की सारी चीज़े मेरे पास पहले से ही मौजूद थी लेकिन कोई भरोसा नहीं था इनका”
“बीवी के साथ कैसा जो चल रहा था कोर्ट में”
“क्या पता साली!…सब वापिस लिए बिना नहीं माने”
“इसलिए कैसे इनकार कर देता साँता जी को?”
“इतनी तो समझ है मुझे कि अच्छे मौके बार-बार नहीं मिला करते”
“सो!…हाथ आया दाव बिना चले कैसे रह जाता?”
“पहली बार तो मेरी किस्मत ने पलटी मारी थी और वो भी तब जब बीवी नहीं थी मेरे साथ”..
“शायद ऊपरवाले ने भी यही सोचा होगा कि इसके घर की लक्ष्मी तो हो गयी उडनछू….
तो क्यों न बाहर से ही कोटा पूरा कर दिया जाए इसका”
“नेक बन्दा है…कुछ ना कुछ बंदोबस्त तो करना ही पडेगा इसका”
“मैँ खुशी से पागल हुआ जा रहा था कि आवाज़ आई कि…
“वक्त के साथ-साथ मैँ भी बूढा हो चला हूँ”…
“इतना सामान कँधे पे उठा नहीं सकता और….
भला दिल्ली की सडकों पर बर्फ गाडी याने स्लेज का क्या काम?”
“इसलिए!…स्लेज छोड ट्रक ही ले आया हूँ मैँ”…
“वक्त के साथ-साथ खुद को भी बदलना पडता है…
“सो!…बदल लिया”साँता जी मुस्कुराते हुए बोले
“मैने भी झट से कह दिया कि आपक नाहक परेशान न हों…मैँ हूँ ना”
“उसी वक्त उनके साथ जा के सारा सामान ट्रक से अनलोड किया ही था कि इतने में नज़र लगाने को शर्मा जी आ पहुँचे”
बोले”ये क्या कर रहे हो?”…
“मैँ चुप रहा”..
“वो फिर बोल पडे”…
“मुझे गुस्सा तो बहुत आया लेकिन चुप रहा कि कौन मुँह लगे और अपना अच्छा-भला मूड खराब करे”
फिर बोल पडे”ये क्या कर रहे हो?”
“अब मुझसे रहा न गया”…
“आखिर बर्दाश्त की भी एक हद होती है”
“तंग आकर आखिर बोलना ही पडा कि…
“मेरा माल है”…
“मैँ जो चाहे करूँ”..
“आपको मतलंब?”
“शर्मा जी बेचारे तो मेरी डांट सुन के चुपचाप अपने रस्ते हो लिए”
“साँता जी के चेहरे पे अभी भी वही मोहिनी मुस्कान थी”
“उनकी सौम्य आवाज़ आई”अब मैँ चलता हूँ”….
“अगले साल फिर से मिलता हूँ”
“और वो पलक झपकते ही गायब हो चुके थे”
“मैँ खुशी से फूला नहीं समा रहा था कि अगले साल फिर से आने का वादा मिला है”…
“इस बार तो मिस हो गया लेकिन अगली बार नहीं”…
“अभी से ही लिस्ट तैयार कर लूंगा कि ये भी माँगना है और वो भी माँगना है”
“बार-बार सारे गिफ्टस की तरफ ही देखे जा रहा था मैँ”…
“नज़र हटाए नहीं हट रही थी कि पता ही नहीं चला कि कब आँख लग गयी”
“सपने में भी उस महान आत्मा के ही दर्शन होते रहे रात भर”
“जब आँख खुली तो देखा कि दोपहर हो चुकी थी”
“सर कुछ भारी-भारी सा था”
“उनींदी आँखो से सारे सामान पे नज़र दौडाई”..
“लेकिन!…ये क्या?”
“जो देखा…देख के गश खा गया मैँ”…
“सब कुछ बिखरा-बिखरा सा था”
“न कहीं टीवी नज़र आ रहा था और ना ही कहीं फ्रिज और होम थिएटर”
“हैण्डी कैम का कहीं अता-पता नहीं था”
“कायदे से तो हर चीज़ दुगनी-दुगनी होनी चाहिए थी पर यहाँ तो इकलौता पीस भी नदारद था”
“देखा तो तिजोरी खुली पडी थी”
“कैश….गहने-लत्ते…क्रैडिट कार्ड….
कुछ भी तो नहीं था”
“सब का सब माल गायब हो चुका था”
“मैंने बाहर जा के इधर-उधर नज़र दौडाई तो कहीं दूर तक कोई नज़र नहीं आया”
“कोई साला!..मेरे सारे माल पे हाथ साफ कर चुका था”
“मैँ ज़ोर-ज़ोर से धाड मार-मार रोने लगा”…
“भीड इकट्ठी हो चुकी थी ”
“सबको अपना दुखडा बता ही रहा था कि शर्मा जी की आवाज़ आई…
“क्यों अपने साथ-साथ सबका दिमाग भी खराब कर रहे हो बेफिजूल में?”…
“रात को सारा सामान खुद ही तो लाद रहे थे ट्रक में और अब ड्रामा कर रहे हो चोरी का”
“मैने अपनी आँखो से देखा और आपसे पूछा भी तो था कि ये आप क्या कर रहे हैँ?”
“आपने ने तो उल्टा मुझे ही डपट दिया था कि मैँ अपना काम करूँ”
“रेडियो स्टेशन से पता किया तो मालुम हुआ कि ईनाम पाने वालों की लिस्ट में मेरा नाम ही नहीं था”
“अब लगने लगा था कि वो साला साँता फ्राड था एक नम्बर का ”
“किसी तरीके से मेरा नम्बर पता लगा लिया होगा उसने”
“और शायद मुझे हिप्नोटाईज़ कर चूना लगा गया”
“अब तो यही के उम्मीद की किरण बाकि है कि शायद वो अपना वायदा निभाए और अगले साल वापिस आए”
“एक बार मिल तो जाए सही कम्भख्त,फिर बताता हूँ कि कैसे सम्मोहित किया जाता है”
“बस इसी आस में कि वो आएगा मैँ इस बार भी ‘एस.एम.एस’ किए जा रहा हूँ…किए जा रहा हूँ”
“जय हिन्द”
***राजीव तनेजा***
Comments on: "“बडा दिन”" (4)
राजीव जी
आपके व्यंग्य बहुत प्रभावी होते हैं, इसलिए मैंने अपने ब्लोग पर उसको लिंक कर लिया है.
दीपक भारतदीप
behtarin hume padhkar behad maza bhi aaya
काफी सराहनीय लेख है।
bahut badhiya vyangya..